
हमारे अहद की तहज़ीब में क़बा ही नहीं;
अगर क़बा हो तो बंद-ए-क़बा की बात करें!
तहज़ीब: सभ्यता
क़बा: गाउन, चोंगा
बंद-ए-क़बा: कपड़े की गाँठ

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल;
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है!

दिल टूटने से थोड़ी सी तकलीफ़ तो हुई;
लेकिन तमाम उम्र को आराम हो गया!

दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है;
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया!

मत बनाओ मुझे फुर्सत के लम्हों का खिलोना;
मैं भी इंसान हूँ, दर्द मुझे भी होता है!

अंदाज़ा लगा लेते हैं सब दर्द का मेरे;
मुस्काते हुए चहरे का नुक़्सान यही हैं;
बहक जाती हैं तक़दीरें इश्क का मुरीद होकर;
सिर्फ़ दर्द से रिश्ता कोई शौक़ से नहीं करता।

कितनी बेचैनियाँ हैं जेहन में तुझे लेकर;
मगर तुझ सा सुकून भी कहीं और नहीं!

कुछ सोच के इक राह-ए-पुर-ख़ार से गुज़रा था;
काँटे भी न रास आए दामन भी न काम आया!

है रश्क-ए-इरम वादी-ए-पुर-ख़ार-ए-मोहब्बत;
शायद उसे सींचा है किसी आबला-पा ने!

जुदाइयों के तसव्वुर ही से रुलाऊं उसे;
मैं झूठ मूठ का किस्सा कोई सुनाऊं उसे!