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नशा हम करते हैं, इल्ज़ाम शराब को दिया जाता है;
मगर इल्ज़ाम शराब का नहीं उनका है;
जिनका चेहरा हमें हर जाम में नज़र आता है।

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मयखाने सजे थे, जाम का था दौर;
जाम में क्या था, ये किसने किया गौर;
जाम में गम था मेरे अरमानों का;
और सब कह रहे थे एक और एक और।

मैखाने मे आऊंगा मगर पिऊंगा नही साकी;
ये शराब मेरा गम मिटाने की औकात नही रखती।

न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है;
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है।

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तनहइयो के आलम की ना बात करो जनाब;
नहीं तो फिर बन उठेगा जाम और बदनाम होगी शराब।

नशा पिलाके गिराना तो सबको आता है;
मज़ा तो जब है कि गिरतों को थाम ले साकी;
जो बादाकश थे पुराने वो उठते जाते हैं;
कहीं से आबे-बक़ा-ए-दवाम ले साकी;
कटी है रात तो हंगामा-गुस्तरी में तेरी;
सहर क़रीब है अल्लाह का नाम ले साकी।

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बड़ी भूल हुई अनजाने में, ग़म छोड़ आये महखाने में;
फिर खा कर ठोकर ज़माने की, फिर लौट आये मयखाने में;
मुझे देख कर मेरे ग़म बोले, बड़ी देर लगा दी आने में।

मौसम भी है, उम्र भी, शराब भी है;
पहलू में वो रश्के-माहताब भी है;
दुनिया में अब और चाहिए क्या मुझको;
साक़ी भी है, साज़ भी है, शराब भी है।

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कुछ सही तो कुछ खराब कहते हैं;
लोग हमें बिगड़ा हुआ नवाब कहते हैं;
हम तो बदनाम हुए कुछ इस कदर;
कि पानी भी पियें तो लोग शराब कहते हैं।

मैखाने मे आऊंगा मगर पिऊंगा नहीं, ऐ साकी;
ये शराब मेरा गम मिटाने की औकात नही रखती!

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