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कभी उलझ पड़े खुदा से कभी साक़ी से हंगामा;
ना नमाज अदा हो सकी ना शराब पी सके।

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न जख्म भरे, न शराब सहारा हुई;
न वो वापस लौटी न मोहब्बत दोबारा हुई!

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नशा हम किया करते हैं, इल्ज़ाम शराब को दिया करते हैं;
कसूर शराब का नहीं उनका है, जिसका चेहरा हम जाम में तलाश किया करते हैं!

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गिरी मिली इक बोतल शराब तो यूँ लगा मुझे;
जैसे बिखरा पडा था इक रात का सुकून किसी का ।

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अफ़ीमी आँखें, शर्बती गाल और शराबी होंठ;
ख़ुदा ही जाने, नशे में हम हैं, या हम में नशा!

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एक तेरा ही नशा था जो शिकस्त दे गया मुझे;
वरना मयखाने भी तौबा करते थे मेरी मयकशी से।

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मयखाने से पूछा आज, इतना सन्नाटा क्यों है,
मयखाना भी मुस्कुरा के बोला, लहू का दौर है साहब, अब शराब कौन पीता है!

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तुम क्या जानो शराब कैसे पिलाई जाती है,
खोलने से पहले बोतल हिलाई जाती है,
फिर आवाज़ लगायी जाती है आ जाओ टूटे दिल वालों,
यहाँ दर्द-ए-दिल की दवा पिलाई जाती है।

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कलम की नोक पे कहानी रखी है;
मैंने इक ग़ज़ल तुम्हारे सानी रखी है;
इन आँखों को अब क्या कहें हम;
दो प्यालों में शराब पुरानी रखी है!

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ले जा के हमें साँकी जहाँ शाम ढले;
कर जन्नत नसीब खुदा जहाँ जाम चले!

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