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नशा पिला के गिराना तो सब को आता है;
मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी।

जिगर की आग बुझे जिससे जल्द वो शय ला,
लगा के बर्फ़ में साक़ी, सुराही-ए-मय ला।

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हम तो जी रहे थे उनका नाम लेकर;
वो गुज़रते थे हमारा सलाम लेकर;
कल वो कह गए भुला दो हमको;
हमने पूछा कैसे, वो चले गए हाथों मे जाम देकर।

पूछिये मयकशों से लुत्फ़-ए-शराब;
ये मज़ा पाक-बाज़ क्या जाने।

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तेरे होठों में भी क्या खूब नशा मिला;
यूँ लगता है तेरे जूठे पानी से ही शराब बनती है।

बोतलें खोल कर तो पी बरसों;
आज दिल खोल कर भी पी जाए।

आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़';
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए।

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मैं थोड़ी देर तक बैठा रहा उसकी आँखों के मैखाने में;
दुनिया मुझे आज तक नशे का आदि समझती है।

न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है;
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है।

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शराब और मेरा कई बार ब्रेकअप हो चुका है;
पर कमबख्त हर बार मुझे मना लेती है।

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