फ़िज़ाओं का मौसम जाने पर, बहारों का मौसम आया;
गुलाब से गुलाब का रंग तेरे गालों पे आया;
तेरे नैनों ने काली घटा का काजल लगाया;
जवानी जो तुम पर चढ़ी तो नशा मेरी आँखों में आया।

हर बार हम पर इल्ज़ाम लगा देते हो मोहब्बत का;
कभी खुद से भी पूछा है इतने हसीन क्यों हो।
ख़िरद वालों से हुस्न ओ इश्क़ की तन्क़ीद क्या होगी;
न अफ़्सून-ए-निगह समझा न अंदाज़-ए-नज़र जाना।
शब्दार्थ:
अफ़्सून-ए-निगह = नज़र का जादू

हमारा क़त्ल करने की उनकी साजिश तो देखो;
गुज़रे जब करीब से तो चेहरे से पर्दा हटा लिया।
आज इस एक नज़र पर मुझे मर जाने दो;
उस ने लोगों बड़ी मुश्किल से इधर देखा है;
क्या ग़लत है जो मैं दीवाना हुआ, सच कहना;
मेरे महबूब को तुम ने भी अगर देखा है।
तरस गए आपके दीदार को,
फिर भी दिल आप ही को याद करता है;
हमसे खुशनसीब तो आइना है आपका;
जो हर रोज़ आपके हुस्न का दीदार करता है।
पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए;
हाए ज़ालिम तिरा अंदाज़-ए-करम क्या कहिए।
वो खिलते हुए गुलाब सा है, कि उस का किरदार आब सा है;
कोई मुस्सवर जो देखे उस को यही कहे लाजवाब सा है;
हया की ज़िंदा मिसाल है वो, मगर यह कमबख्त पर्दा देखो;
देखने से रोकता है इस हुस्न को, चेहरे पर यह जो नक़ाब सा है।
तुझे पाने की इस लिए ज़िद्द नहीं करते;
क्योंकि तुझे खोने को दिल नहीं करता;
तू मिलता है तो इसलिए नहीं देखते तुझको;
क्योंकि फिर इस हसीं चेहरे से नज़रें हटाने को दिल नहीं करता।
हम भटकते रहे थे अनजान राहों में;
रात दिन काट रहे थे यूँ ही बस आहों में;
अब तम्मना हुई है फिर से जीने की हमें;
कुछ तो बात है सनम तेरी इस निगाहों में।