ख़ुद न छुपा सके वो अपना चेहरा नक़ाब में;
बेवज़ह हमारी आँखों पे इल्ज़ाम लग गया।

मैं भी हुआ करता था वकील इश्क वालों का कभी;
नज़रें उस से क्या मिलीं आज खुद कटघरे में हूँ।

जो उनकी आँखों से बयां होते हैं,
वो लफ्ज़ शायरी में कहाँ होते हैं।

फूल जब उसने छू लिया होगा,
होश तो ख़ुशबू के भी उड़ गए होंगे।

फिरते हुए किसी की नज़र देखते रहे हम,
उधर दिल का ख़ून हो रहा था मगर देखते रहे हम।

बस जिद है तू इस दिल की,
वरना इन आँखो ने चेहरे और भी हसीन देखे हैं।

तुम्हारा दीदार और वो भी आँखों में आँखें डालकर,
ये कशिश कलम से बयाँ करना भी मेरे बस की बात नही।

होंठो पे अपने, यूँ ना रखा करो तुम नादान, कलम को;
वरना नज़्म फिर नशीली होकर, लड़खड़ाती रहेगी।

तुम्हारा दीदार और वो भी आँखों में आँखें डालकर,
ये कशिश कलम से बयाँ करना भी मेरे बस की बात नहीं।
कैसे लफ्जों में बयां करूँ मैं खूबसूरती तुम्हारी,
सुंदरता का झरना भी तुम हो, मोहब्बत का दरिया भी तुम हो।