
कल उस सनम के कूचे से निकला जो शैख़-ए-वक़्त; कहते थे सब इधर से अजब बरहमन गया! *शैख़-ए-वक़्त: अपने समय का सबसे बड़ा धर्मगुरु *बरहमन: ब्राह्मण

दोनों तेरी जुस्तुजू में फिरते हैं दर दर तबाह; दैर हिन्दू छोड़ कर काबा मुसलमाँ छोड़ कर!

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है; ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है!

अज़ीज़ इतना ही रखो कि जी सँभल जाए; अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए! ~ उबैदुल्लाह अलीम 'अज़ीज़ *दोस्त, प्रिय, प्यारा,

यहाँ हर किसी को
दरारों में झाँकने की आदत है,
दरवाजे खोल दो,
कोई पूछने भी नहीं आएगा।

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो, सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो; किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं, तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो!

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या, दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या; मेरी हर बात बे-असर ही रही, नक़्स है कुछ मेरे बयान में क्या!

तुम्हारे ख़त में नया एक सलाम किस का था,

ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही, न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही; शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी, न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही!

कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तुगू; वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो!