
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं, सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं; सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से, सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं!

सुला कर तेज़ धारों को किनारो तुम न सो जाना; रवानी ज़िंदगानी है तो धारो तुम न सो जाना!

ढल चुकी रात मुलाक़ात कहाँ सो जाओ; सो गया सारा जहाँ सारा जहाँ सो जाओ!

बहुत अज़ीज़ न क्यों हो कि दर्द है तेरा; ये दर्द बढ़ के रहा इज़्तिराब हो के रहा!

दर्द का ज़ायका बताऊँ क्या; ये इलाक़ा ज़ुबान से बाहर है!

दर्द का फिर मज़ा है जब 'अख़्तर'; दर्द ख़ुद चारा साज़ हो जाए! *अख़्तर: तारा, सितारा, क़िस्मत

"शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी, कोई पत्थर से न मारे मेंरे दीवाने को।"

"ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने, लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।"

दिल सरापा दर्द था वो इब्तिदा-ए-इश्क़ थी; इंतेहा ये है कि 'फ़ानी' दर्द अब दिल हो गया!

क़ैस जंगल में अकेला ही मुझे जाने दो; ख़ूब गुज़रेगी, जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।