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एक शजर ऐसा मोहब्बत का लगाया जाए;
जिस का हम-साए के आँगन में भी साया जाए!

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शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास;
दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं!

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आता है जो तूफ़ान आने दे कश्ती का ख़ुदा ख़ुद हाफ़िज़ है;
मुमकिन है कि उठती लहरों में बहता हुआ साहिल आ जाए!

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मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी;
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी!

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बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मालूम;
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई!

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यारों की मोहब्बत का यकीन कर लिया मैंने,
फूलों में छुपाया हुआ ख़ंजर नहीं देखा;
महबूब का घर हो कि बुज़ुर्गों की ज़मीनें,
जो छोड़ दिया फिर उसे मुड़ कर नहीं देखा!

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वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर';
कि मेरे बाद सितारे कहेंगे अफ़्साने!

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शदीद गर्मी में कैसे निकले वो फूल-चेहरा;
सो अपने रस्ते में धूप दीवार हो रही है!

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मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं,
यही होता है ख़ानदान में क्या;
अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं,
हम ग़रीबों की आन-बान में क्या!

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तुझ सा कोई जहान में नाज़ुक-बदन कहाँ;
ये पंखुड़ी से होंठ ये गुल सा बदन कहाँ!

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