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चिराग घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का;
हवा के पास कोई मस्लहत नहीं होती!

*मस्लहत: भला बुरा देख कर काम करना

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पूछा जो उन से चाँद निकलता है किस तरह;
ज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूँ!

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अब तो हर बात याद रहती है;
ग़ालिबन मैं किसी को भूल गया!

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जवानी को बचा सकते तो हैं हर दाग़ से वाइज़;
मगर ऐसी जवानी को जवानी कौन कहता है!

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तड़प जाता हूँ जब बिजली चमकती देख लेता हूँ;
कि इस से मिलता-जुलता सा किसी का मुस्कुराना है!

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कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है;
हम आह तो करते हैं फ़रियाद नहीं करते!

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वो कोई दोस्त था अच्छे दिनों का;
जो पिछली रात से याद आ रहा है!

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ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन;
लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं!

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चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है;
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है!

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आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं;
साक़ी ने इस मक़ाम को आसाँ बना दिया!

*आलम : दुनिया

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