रात आ कर गुज़र भी जाती है; एक हमारी सहर नहीं होती!
मुझे ये डर है दिल-ए-ज़िंदा तू न मर जाए; कि ज़िंदगानी इबारत है तेरे जीने से! *इबारत: प्रतीक
गुनाह गिन के मैं क्यों अपने दिल को छोटा करूँ; सुना है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं!
दिल पे कुछ और गुज़रती है मगर क्या कीजे; लफ़्ज़ कुछ और ही इज़हार किए जाते हैं!
मेरे रोने का जिस में क़िस्सा है; उम्र का बेहतरीन हिस्सा है!
मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते; है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला!
दिल में एक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए; बैठे बैठे हमें क्या जानिए क्या याद आया!
दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है; जो किसी और का होने दे न अपना रखे! *वाबस्ता: संबंधित, जुड़ा हुआ
दोस्ती की तुम ने दुश्मन से अजब तुम दोस्त हो; मैं तुम्हारी दोस्ती में मेहरबान मारा गया!
ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना; ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते!



