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सवाल करती कई आँखें मुंतज़िर हैं यहाँ;
जवाब आज भी हम सोच कर नहीं आए!

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मेरी मजबूरियाँ क्या पूछते हो;
कि जीने के लिए मजबूर हूँ मैं!

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दर्द-ए-दिल कितना पसंद आया उसे;
मैंने जब की आह उस ने वाह की!

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उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है;
दो ज़हर के प्यालों में क़ज़ा खेल रही है!

* हया: शर्म
* क़ज़ा: मृत्यु

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तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी;
कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो!

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मोहब्बत आप ही मंज़िल है अपनी;
न जाने हुस्न क्यों इतरा रहा है!

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हमारी मुस्कुराहट पर न जाना;
दिया तो क़ब्र पर भी जल रहा है!

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ये पानी ख़ामोशी से बह रहा है;
इसे देखें कि इस में डूब जाएँ!

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सब कुछ तो है क्या ढूँडती रहती हैं निगाहें;
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता!

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अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ;
ख़ुद से मिलना मेरा एक शख़्स के खोने से हुआ!

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