जाती है धूप उजले परों को समेट के; ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के!
बहुत क़रीब रही है ये ज़िंदगी हम से; बहुत अज़ीज़ सही ऐतबार कुछ भी नहीं!
बेबसी से नजात मिल जाए; फिर सवाल-ओ-जवाब कर लेना!
आज फिर मुझ से कहा दरिया ने; क्या इरादा है बहा ले जाऊँ!
इसीलिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं; तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मैं!
उम्र जो बे-ख़ुदी में गुज़री है; बस वही आगही में गुज़री है! *आगही: समझ-बूझ
जिसे न आने की क़स्में मैं दे के आया हूँ; उसी के क़दमों की आहट का इंतज़ार भी है!
लड़ने को दिल जो चाहे तो आँखें लड़ाइए; हो जंग भी अगर तो मज़ेदार जंग हो!
हाल तुम सुन लो मेरा देख लो सूरत मेरी; दर्द वो चीज़ नहीं है कि दिखाए कोई!
तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया; ख़ुश हूँ कि कुछ न कुछ तो मेरे पास रह गया!



