सच है एहसान का भी बोझ बहुत होता है;
चार फूलों से दबी जाती है तुर्बत मेरी!
*तुर्बत: क़ब्र
न कोई वादा न कोई यकीन न कोई उम्मीद;
मगर हमें तो तेरा इंतज़ार करना था!
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद;
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है!
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर;
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए!
आँखें जो उठाए तो मोहब्बत का गुमाँ हो;
नज़रों को झुकाए तो शिकायत सी लगे है!
जाने कितने बे-क़ुसूरों को सज़ाएँ मिल रहीं;
झूठ लगता है तुम्हें तो जेल जा कर देखिए!
आज एक और बरस बीत गया उस के बग़ैर;
जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे!
रात भी नींद भी कहानी भी;
हाए क्या चीज़ है जवानी भी!
या वो थे ख़फ़ा हम से, या हम हैं ख़फ़ा उन से;
कल उन का ज़माना था, आज अपना ज़माना है!
उस ने मंज़िल पे ला के छोड़ दिया;
उम्र भर जिस का रास्ता देखा!



