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करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम;
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता!

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मोहब्बत की तो कोई हद, कोई सरहद नहीं होती;
हमारे दरमियाँ ये फ़ासले, कैसे निकल आए!

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दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के;
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के!

* शब-ए-ग़म - ग़म/दुख की रात

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न पूछो हुस्न की तारीफ़ हम से;
मोहब्बत जिस से हो बस वो हसीं है!

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सारी दुनिया के ग़म हमारे हैं;
और सितम ये कि हम तुम्हारे हैं!

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बड़ी आरज़ू थी हम को नए ख़्वाब देखने की;
सो अब अपनी ज़िंदगी में नए ख़्वाब भर रहे हैं!

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ज़िंदगी किस तरह बसर होगी;
दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में!

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उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं;
वो जो कल कहते थे दीवाना भी सौदाई भी!

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हम ग़म-ज़दा हैं लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत;
देंगे वही जो पाएँगे इस ज़िंदगी से हम!

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इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें;
कुछ देर को बजने दो ये शहनाई ज़रा और!

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