लोग कहते हैं कि क़ातिल को मसीहा कहिए;
कैसे मुमकिन है अंधेरों को उजाला कहिए!
तपती ज़मीं पे पाँव न धर अब भी लौट जा;
क्यों हो रहा है ख़ाक-ब-सर अब भी लौट जा!
मैं हूँ हैरान ये सिलसिला क्या है;
आइना मुझ में ढूँढता क्या है!
मजबूरियों के नाम पे सब छोड़ना पड़ा;
दिल तोड़ना कठिन था मगर तोड़ना पड़ा!
हमारी जान तुम ऐसा करोगी;
हमारी जान का सौदा करोगी!
रफ़्ता रफ़्ता चीख़ना आराम हो जाने के बाद;
डूब जाना फिर निकलना शाम हो जाने के बाद!
कोई कैसा ही साबित हो तबीयत आ ही जाती है;
ख़ुदा जाने ये क्या आफ़त है आफ़त आ ही जाती है!
*तबीयत: स्वभाव
अपनी पलकों से जो टूटे हैं गुहर देखते हैं;
हम दुआ माँगते हैं और असर देखते हैं!
*गुहर: मोती
पर्दा तुम्हारे रुख़ से हटाना पड़ा मुझे;
यूँ अपनी हसरतों को जगाना पड़ा मुझे!
ज़रा सा जोश क्या दरिया में आया;
समंदर की बुराई कर रहा है!



