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लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से;
तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से!

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कभी दुआ तो कभी बद-दुआ से लड़ते हुए;
तमाम उम्र गुज़ारी हवा से लड़ते हुए!

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ग़मों से बशर को रिहा देखना;
सुलगती कोई जब चिता देखना!

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शाख़ों पर जब पत्ते हिलने लगते हैं;
आँसू मेरे दिल पे गिरने लगते हैं!

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अपनी तन्हाई को आबाद तो कर सकते हैं;
हम तुझे मिल न सकें याद तो कर सकते हैं!

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करम नहीं तो सितम ही सही रवा रखना;
तअ'ल्लुक़ात वो जैसे भी हों सदा रखना!

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हवा से उजड़ कर बिखर क्यों गए;
वो पत्ते जो सरसब्ज़ शाख़ों पे थे!
*सरसब्ज़ - उत्पादक

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मुस्कुराना भी क्या ग़ज़ब है तेरा;
जैसे बिजली चमक गयी कोई!

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पुकार लेंगे उस को इतना आसरा तो चाहिए;
दुआ ख़िलाफ़-ए-वज़अ है मगर ख़ुदा तो चाहिए!
*ख़िलाफ़-ए-वज़अ - परंपरा के विपरीत

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दर्द अब दिल की दवा हो जैसे;
ज़िंदगी एक सज़ा हो जैसे!

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