अभी कुछ दिन मुझे इस शहर में आवारा रहना है;
कि अब तक दिल को उस बस्ती की शामें याद आती हैं!
देखूँ तो जुर्म और न देखूँ तो कुफ़्र है;
अब क्या कहूँ जमाल-ए-रुख़-ए-फ़ित्नागर को मैं!
ये ज़मीं आसमान रहने दे;
कोई तो साएबान रहने दे!
* साएबान - शामियाना
अपनी ख़ुद्दारी तो पामाल नहीं कर सकते;
उस का नंबर है मगर काल नहीं कर सकते!
मैं बाज़गश्त-ए-दिल हूँ पैहम शिकस्त-ए-दिल हूँ;
वो आज़मा रहा हूँ जो आज़मा चुका हूँ!
साज़-ए-फ़ुर्क़त पे ग़ज़ल गाओ कि कुछ रात कटे;
प्यार की रस्म को चमकाओ कि कुछ रात कटे!
तुझ से बिछड़ के दर्द तेरा हम-सफ़र रहा;
मैं राह-ए-आरज़ू में अकेला कभी न था!
इक उम्र हुई और मैं अपने से जुदा हूँ;
ख़ुशबू की तरह ख़ुद को सदा ढूँड रहा हूँ!
हिजाब उठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं;
शरीक-ए-इश्क़ कहीं कोई आरज़ू तो नहीं!
मेरी दुआओं की सब नग़्मगी तमाम हुई;
सहर तो हो न सकी और फिर से शाम हुई!
* नग़्मगी - गीतकारी



