अज़ीज़ इतना ही रखो कि जी सँभल जाए; अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए! ~ उबैदुल्लाह अलीम 'अज़ीज़ *दोस्त, प्रिय, प्यारा, |
जो दिल को है ख़बर कहीं मिलती नहीं ख़बर; हर सुब्ह एक अज़ाब है अख़बार देखना! |
ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ; काश तुझ को भी इक झलक देखूँ! |
हवा के दोश पे रखे हुए चिराग़ हैं हम; जो बुझ गए तो हवा से शिकायतें कैसी! |
बड़ी आरज़ू थी हम को नए ख़्वाब देखने की; सो अब अपनी ज़िंदगी में नए ख़्वाब भर रहे हैं! |
हाए वो लोग गए चाँद से मिलने और फिर; अपने ही टूटे हुए ख़्वाब उठा कर ले आए! |
काश देखो कभी टूटे हुए आईनों को: दिल शिकस्ता हो तो फिर अपना पराया क्या है! |
मैं उस को भूल गया हूँ वो मुझ को भूल गया; तो फिर ये दिल पे क्यों दस्तक सी ना-गहानी हुई! *ना-गहानी - आकस्मिक, इत्तिफ़ाक़ी, दैविक, गैवी |
जवानी क्या हुई इक रात की कहानी हुई; बदन पुराना हुआ रूह भी पुरानी हुई! |
अब तो मिल जाओ हमें तुम कि तुम्हारी ख़ातिर; इतनी दूर आ गए दुनिया से किनारा करते! |