हर एक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है; वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है; ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र; कभी एक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है; मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी; कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है; फिर एक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के; कहीं पहले-पहल एक ख़्वाब का शोला भड़कता है; मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं; निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है। |
जागती रात अकेली... जागती रात अकेली-सी लगे; ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे; रुप का रंग-महल, ये दुनिया; एक दिन सूनी हवेली-सी लगे; हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे; शायरी तेरी सहेली-सी लगे; मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल; मुझ को हर रात नवेली-सी लगे; रातरानी सी वो महके ख़ामोशी; मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे; फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची; ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे। |
जागती रात अकेली-सी लगे; ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे; रुप का रंग-महल, ये दुनिया; एक दिन सूनी हवेली-सी लगे; हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे; शायरी तेरी सहेली-सी लगे; मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल; मुझ को हर रात नवेली-सी लगे; रातरानी सी वो महके ख़ामोशी; मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे; फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची; ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे। |
जागती रात अकेली... जागती रात अकेली-सी लगे; ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे; रुप का रंग-महल, ये दुनिया; एक दिन सूनी हवेली-सी लगे; हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे; शायरी तेरी सहेली-सी लगे; मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल; मुझ को हर रात नवेली-सी लगे; रातरानी सी वो महके ख़ामोशी; मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे; फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची; ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे। |
मैंने कब चाहा कि... मैंने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ; ये भी क्या कम है अगर उस को गवारा हो जाऊँ; मुझ को ऊँचाई से गिरना भी है मंज़ूर, अगर; उस की पलकों से जो टूटे, वो सितारा हो जाऊँ; लेकर इक अज़्म उठूँ रोज़ नई भीड़ के साथ; फिर वही भीड़ छटे और मैं तनहा हो जाऊँ; जब तलक महवे-नज़र हूँ, मैं तमाशाई हूँ; टुक निगाहें जो हटा लूं तो तमाशा हो जाऊँ; मैं वो बेकार सा पल हूँ, न कोइ शब्द, न सुर; वह अगर मुझ को रचाले तो हमेशा हो जाऊँ; आगही मेरा मरज़ भी है, मुदावा भी है 'साज़'; जिस से मरता हूँ, उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ। |
हर इक लम्हे की रग में... हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है; वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है; ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र; कभी इक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है; मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी; कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है; फिर इक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के; कहीं पहले-पहल इक ख़्वाब का शोला भड़कता है; मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं; निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है। |
ख़ुद को औरों की तवज्जो का... ख़ुद को औरों की तवज्जो का तमाशा न करो; आइना देख लो, अहबाब से पूछा न करो; वह जिलाएंगे तुम्हें शर्त बस इतनी है कि तुम; सिर्फ जीते रहो, जीने की तमन्ना न करो; जाने कब कोई हवा आ के गिरा दे इन को; पंछियो ! टूटती शाख़ों पे बसेरा न करो; आगही बंद नहीं चंद कुतुब-ख़ानों में; राह चलते हुए लोगों से भी याराना करो; चारागर छोड़ भी दो अपने मरज़ पर हम को; तुम को अच्छा जो न करना है, तो अच्छा न करो; शेर अच्छे भी कहो, सच भी कहो, कम भी कहो; दर्द की दौलते-नायाब को रुसवा न करो। |