Abdul Ahad Saaz Hindi Shayari

  • हर एक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है;
    वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है;

    ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र;
    कभी एक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है;

    मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी;
    कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है;

    फिर एक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के;
    कहीं पहले-पहल एक ख़्वाब का शोला भड़कता है;

    मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं;
    निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है।
    ~ Abdul Ahad Saaz
  • जागती रात अकेली...

    जागती रात अकेली-सी लगे;
    ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे;

    रुप का रंग-महल, ये दुनिया;
    एक दिन सूनी हवेली-सी लगे;

    हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे;
    शायरी तेरी सहेली-सी लगे;

    मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल;
    मुझ को हर रात नवेली-सी लगे;

    रातरानी सी वो महके ख़ामोशी;
    मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे;

    फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची;
    ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे।

    ~ Abdul Ahad Saaz
  • जागती रात अकेली-सी लगे;
    ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे;

    रुप का रंग-महल, ये दुनिया;
    एक दिन सूनी हवेली-सी लगे;

    हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे;
    शायरी तेरी सहेली-सी लगे;

    मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल;
    मुझ को हर रात नवेली-सी लगे;

    रातरानी सी वो महके ख़ामोशी;
    मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे;

    फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची;
    ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे।
    ~ Abdul Ahad Saaz
  • जागती रात अकेली...

    जागती रात अकेली-सी लगे;
    ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे;

    रुप का रंग-महल, ये दुनिया;
    एक दिन सूनी हवेली-सी लगे;

    हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे;
    शायरी तेरी सहेली-सी लगे;

    मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल;
    मुझ को हर रात नवेली-सी लगे;

    रातरानी सी वो महके ख़ामोशी;
    मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे;

    फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची;
    ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे।
    ~ Abdul Ahad Saaz
  • मैंने कब चाहा कि...

    मैंने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ;
    ये भी क्या कम है अगर उस को गवारा हो जाऊँ;

    मुझ को ऊँचाई से गिरना भी है मंज़ूर, अगर;
    उस की पलकों से जो टूटे, वो सितारा हो जाऊँ;

    लेकर इक अज़्म उठूँ रोज़ नई भीड़ के साथ;
    फिर वही भीड़ छटे और मैं तनहा हो जाऊँ;

    जब तलक महवे-नज़र हूँ, मैं तमाशाई हूँ;
    टुक निगाहें जो हटा लूं तो तमाशा हो जाऊँ;

    मैं वो बेकार सा पल हूँ, न कोइ शब्द, न सुर;
    वह अगर मुझ को रचाले तो हमेशा हो जाऊँ;

    आगही मेरा मरज़ भी है, मुदावा भी है 'साज़';
    जिस से मरता हूँ, उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ।
    ~ Abdul Ahad Saaz
  • हर इक लम्हे की रग में...

    हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है;
    वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है;

    ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र;
    कभी इक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है;

    मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी;
    कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है;

    फिर इक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के;
    कहीं पहले-पहल इक ख़्वाब का शोला भड़कता है;

    मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं;
    निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है।
    ~ Abdul Ahad Saaz
  • ख़ुद को औरों की तवज्जो का...

    ख़ुद को औरों की तवज्जो का तमाशा न करो;
    आइना देख लो, अहबाब से पूछा न करो;

    वह जिलाएंगे तुम्हें शर्त बस इतनी है कि तुम;
    सिर्फ जीते रहो, जीने की तमन्ना न करो;

    जाने कब कोई हवा आ के गिरा दे इन को;
    पंछियो ! टूटती शाख़ों पे बसेरा न करो;

    आगही बंद नहीं चंद कुतुब-ख़ानों में;
    राह चलते हुए लोगों से भी याराना करो;

    चारागर छोड़ भी दो अपने मरज़ पर हम को;
    तुम को अच्छा जो न करना है, तो अच्छा न करो;

    शेर अच्छे भी कहो, सच भी कहो, कम भी कहो;
    दर्द की दौलते-नायाब को रुसवा न करो।
    ~ Abdul Ahad Saaz