उलझा दिल-ए-सितम-ज़दा ज़ुल्फ़-ए-बुताँ से आज; नाज़िल हुई बला मेरे सर पर कहाँ से आज; तड़पूँगा हिज्र-ए-यार में है रात चौधवीं; तन चाँदनी में होगा मुक़ाबिल कताँ से आज; दो-चार रश्क-ए-माह भी हम-राह चाहिएँ; वादा है चाँदनी में किसी मेहर-बाँ से आज; हंगाम-ए-वस्ल रद्द-ओ-बदल मुझ से है अबस; निकलेगा कुछ न काम नहीं और हाँ से आज; क़ार-ए-बदन में रूह पुकारी ये वक़्त-ए-नज़ा; मुद्दत के बाद उठते हैं हम इस मकाँ से आज; अँधेर था निगाह-ए-'अमानत' में शाम सहर; तुम चाँद की तरह निकल आए कहाँ से आज। |
भूला हूँ मैं आलम को सर-शार इसे कहते हैं; मस्ती में नहीं ग़ाफ़िल हुश्यार इसे कहते हैं; गेसू इसे कहते हैं रुख़सार इसे कहते हैं; सुम्बुल इसे कहते हैं गुल-ज़ार इसे कहते हैं; इक रिश्ता-ए-उल्फ़त में गर्दन है हज़ारों की; तस्बीह इसे कहते हैं ज़ुन्नार इसे कहते हैं; महशर का किया वादा याँ शक्ल न दिखलाई; इक़रार इसे कहते हैं इंकार इसे कहते हैं; टकराता हूँ सर अपना क्या क्या दर-ए-जानाँ से; जुम्बिश भी नहीं करती दीवार इसे कहते हैं; ख़ामोश 'अमानत' है कुछ उफ़ भी नहीं करता; क्या क्या नहीं ऐ प्यारे अग़्यार इसे कहते हैं। |