हर एक शाम का मंज़र धुआँ उगलने लगा, वो देखो दूर कहीं आसमाँ पिघलने लगा; तो क्या हुआ जो मयस्सर कोई लिबास नहीं, पहन के धूप मैं अपने बदन पे चलने लगा; मैं पिछली रात तो बेचैन हो गया इतना, कि उस के बाद ये दिल ख़ुद-ब-ख़ुद बहलने लगा; अजीब ख़्वाब थे शीशे की किर्चियों की तरह, जब उन को देखा तो आँखों से ख़ूँ निकलने लगा; बना के दाएरा यादें सिमट के बैठ गईं. ब-वक़्त-ए-शाम जो दिल का अलाव जलने लगा। |