फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर जाता हूँ मैं. तुम ख़बर बे-ज़ार हो अहल-ए-नज़र जाता हूँ मैं; जेब में रख ली हैं क्यों तुम ने ज़ुबानें काट कर, किस से अब ये अजनबी पूछे किधर जाता हूँ मैं; हाँ मैं साया हूँ किसी शय का मगर ये भी तो देख, गर तआक़ुब में न हो सूरज तो मर जाता हूँ मैं; हाथ आँखों से उठा कर देख मुझ से कुछ न पूछ, क्यों उफ़ुक पर फैलती सुब्हों से डर जाता हूँ मैं; 'अर्श' रस्मों की पनह-गाहें भी अब सर पर नहीं, और वहशी रास्तों पर बे-सिपर जाता हूँ मैं। |
एक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ; ऐ संग-दिल तुझे भी ख़बर है कि क्या हुआ। |
ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी; जारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सी; दिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करता; क्या डर है के रहती है वफ़ा सहमी हुई सी; उठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाक; होंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सी; हाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम ने; नम-नाक निगाहों में हया सहमी हुई सी; तक़सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोना; मिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सी; है 'अर्श' वहाँ आज मुहीत एक ख़ामोशी; जिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी। |
वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा कर ले गया; क्यों न मुझ को भी तेरे दर से उठा कर ले गया; रात अपने चाहने वालों पे था वो मेहर-बाँ; मैं न जाता था मगर वो मुझ को आ कर ले गया; एक सैल-ए-बे-अमाँ जो आसियों को था सज़ा; नेक लोगों के घरों को भी बहा कर ले गया; मैं ने दरवाज़ा न रक्खा था के डरता था मगर; घर का सरमाया वो दीवारें गिरा कर ले गया; वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए; अपनी तस्वीरें भी कमरे से उठा कर ले गया; मेहर-बाँ कैसे कहूँ मैं 'अर्श' उस बे-दर्द को; नूर आँखों का जो इक जलवा दिखा कर ले गया। |
बंद आँखों से न हुस्न-ए-शब का अंदाज़ा लगा; महमिल-ए-दिल से निकल सर को हवा ताज़ा लगा; देख रह जाए न तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीर; घर बनाता है तो सब से पहले दरवाज़ा लगा; हाँ समंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच; डूबने से पहले गहराई का अंदाज़ा लगा; हर तरफ़ से आएगा तेरी सदाओं का जवाब; चुप के चंगुल से निकल और एक आवाज़ा लगा; सर उठा कर चलने की अब याद भी बाक़ी नहीं; मेरे झुकने से मेरी ज़िल्लत का अंदाज़ा लगा; रहम खा कर 'अर्श' उस ने इस तरफ़ देखा मगर; ये भी दिल दे बैठने का मुझ को ख़मियाज़ा लगा। |