Arsh Siddique Hindi Shayari

  • फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर जाता हूँ मैं.
    तुम ख़बर बे-ज़ार हो अहल-ए-नज़र जाता हूँ मैं;

    जेब में रख ली हैं क्यों तुम ने ज़ुबानें काट कर,
    किस से अब ये अजनबी पूछे किधर जाता हूँ मैं;

    हाँ मैं साया हूँ किसी शय का मगर ये भी तो देख,
    गर तआक़ुब में न हो सूरज तो मर जाता हूँ मैं;

    हाथ आँखों से उठा कर देख मुझ से कुछ न पूछ,
    क्यों उफ़ुक पर फैलती सुब्हों से डर जाता हूँ मैं;

    'अर्श' रस्मों की पनह-गाहें भी अब सर पर नहीं,
    और वहशी रास्तों पर बे-सिपर जाता हूँ मैं।
    ~ Arsh Siddique
  • एक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ;<br/>
ऐ संग-दिल तुझे भी ख़बर है कि क्या हुआ।Upload to Facebook
    एक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ;
    ऐ संग-दिल तुझे भी ख़बर है कि क्या हुआ।
    ~ Arsh Siddique
  • ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी;
    जारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सी;

    दिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करता;
    क्या डर है के रहती है वफ़ा सहमी हुई सी;

    उठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाक;
    होंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सी;

    हाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम ने;
    नम-नाक निगाहों में हया सहमी हुई सी;

    तक़सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोना;
    मिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सी;

    है 'अर्श' वहाँ आज मुहीत एक ख़ामोशी;
    जिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी।
    ~ Arsh Siddique
  • वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा कर ले गया;
    क्यों न मुझ को भी तेरे दर से उठा कर ले गया;

    रात अपने चाहने वालों पे था वो मेहर-बाँ;
    मैं न जाता था मगर वो मुझ को आ कर ले गया;

    एक सैल-ए-बे-अमाँ जो आसियों को था सज़ा;
    नेक लोगों के घरों को भी बहा कर ले गया;

    मैं ने दरवाज़ा न रक्खा था के डरता था मगर;
    घर का सरमाया वो दीवारें गिरा कर ले गया;

    वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए;
    अपनी तस्वीरें भी कमरे से उठा कर ले गया;

    मेहर-बाँ कैसे कहूँ मैं 'अर्श' उस बे-दर्द को;
    नूर आँखों का जो इक जलवा दिखा कर ले गया।
    ~ Arsh Siddique
  • बंद आँखों से न हुस्न-ए-शब का अंदाज़ा लगा;
    महमिल-ए-दिल से निकल सर को हवा ताज़ा लगा;

    देख रह जाए न तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीर;
    घर बनाता है तो सब से पहले दरवाज़ा लगा;

    हाँ समंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच;
    डूबने से पहले गहराई का अंदाज़ा लगा;

    हर तरफ़ से आएगा तेरी सदाओं का जवाब;
    चुप के चंगुल से निकल और एक आवाज़ा लगा;

    सर उठा कर चलने की अब याद भी बाक़ी नहीं;
    मेरे झुकने से मेरी ज़िल्लत का अंदाज़ा लगा;

    रहम खा कर 'अर्श' उस ने इस तरफ़ देखा मगर;
    ये भी दिल दे बैठने का मुझ को ख़मियाज़ा लगा।
    ~ Arsh Siddique