कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था; यहाँ चराग़ वहाँ पर सितारा धरना था; वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई; अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था; अगर रसा में न था वो भरा भरा सा बदन; रंग-ए-ख़याल से उस को तुलू करना था; निगाह और चराग़ और ये असासा-ए-जाँ; तमाम होती हुई शब के नाम करना था; गुरेज़ होता चला जा रहा था मुझ से वो; और एक पल के सिरे पर मुझे ठहरना था। |
तू भी तो एक लफ़्ज़ है इक दिन मिरे बयाँ में आ; मेरे यक़ीं में गश्त कर मेरी हद-ए-गुमाँ में आ; नींदों में दौड़ता हुआ तेरी तरफ़ निकल गया; तू भी तो एक दिन कभी मेरे हिसार-ए-जाँ में आ; इक शब हमारे साथ भी ख़ंजर की नोक पर कभी; लर्ज़ीदा चश्म-ए-नम में चल जलते हुए मकाँ में आ; नर्ग़े में दोस्तों के तू कब तक रहेगा सुर्ख़-रू; नेज़ा-ब-नेज़ा दू-ब-दू-सफ़्हा-ए-दुश्मनान में आ; इक रोज़ फ़िक्र-ए-आब-ओ-नाँ तुझ को भी हो जान-ए-जहाँ; क़ौस-ए-अबद को तोड़ कर इस अर्सा-ए-ज़ियाँ में आ। |