कभी मुझको साथ लेके, कभी मेरे साथ चल के, वह बदल गये अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल कर। |
हुए जिस पे मेहरबां तुम कोई खुशनसीब होगा; मेरी हसरतें तो निकली मेरे आँसुओं में ढलकर। |
यह उड़ी-उड़ी सी रंगत, ये खुले-खुले से गेसूं; तेरी सुबह कह रही है, तेरी रात का फसाना। Meaning: गेसूं - बाल, केश, ज़ुल्फ |
कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के; वो बदल गए अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के; हुए जिस पे मेहरबाँ, तुम कोई ख़ुशनसीब होगा; मेरी हसरतें तो निकलीं, मेरे आँसूओं में ढल के; तेरी ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के, क़ुर्बाँ दिल-ए-ज़ार ढूँढता है; वही चम्पई उजाले, वही सुरमई धुंधल के; कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा; जो चिराग़ बुझ गए हैं, तेरी अंजुमन में जल के; मेरे दोस्तो ख़ुदारा, मेरे साथ तुम भी ढूँढो; वो यहीं कहीं छुपे हैं, मेरे ग़म का रुख़ बदल के; तेरी बेझिझक हँसी से, न किसी का दिल हो मैला; ये नगर है आईनों का, यहाँ साँस ले संभल के। |
आज भड़की रग-ए-वहशत तेरे दीवानों की; क़िस्मतें जागने वाली हैं बयाबानों की; फिर घटाओं में है नक़्क़ारा-ए-वहशत की सदा; टोलियाँ बंध के चलीं दश्त को दीवानों की; आज क्या सूझ रही है तिरे दीवानों को; धज्जियाँ ढूँढते फिरते हैं गरेबानों की; रूह-ए-मजनूँ अभी बेताब है सहराओं में; ख़ाक बे-वजह नहीं उड़ती बयाबानों की; उस ने 'एहसान' कुछ इस नाज़ से मुड़ कर देखा; दिल में तस्वीर उतर आई परी-ख़ानों की। |
जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा; बन के हर ज़र्रा आफ़्ताब उठा; डूबी जाती है ज़ब्त की कश्ती; दिल में तूफ़ान-ए-इजि़्तराब उठा; मरने वाले फ़ना भी पर्दा है; उठ सके गर तो ये हिजाब उठा; शाहिद-ए-मय की ख़ल्वतों में पहुँच; पर्दा-ए-नश्शा-ए-शराब उठा; हम तो आँखों का नूर खो बैठे; उन के चेहरे से क्या नक़ाब उठा; होश नक़्स-ए-ख़ुदी है ऐ 'एहसान'; ला उठा शीशा-ए-शराब उठा। |
नज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगा; हयात मौत से टकरा गई तो क्या होगा; नई सहर के बहुत लोग मुंतज़िर हैं मगर; नई सहर भी कजला गई तो क्या होगा; न रहनुमाओं की मजलिस में ले चलो मुझको; मैं बे-अदब हूँ हँसी आ गई तो क्या होगा; ग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँ; मगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगा; शबाब-ए-लाला-ओ-गुल को पुकारनेवालों; ख़िज़ाँ-सिरिश्त बहार आ गई तो क्या होगा; ख़ुशी छीनी है तो ग़म का भी ऐतमाद न कर; जो रूह ग़म से भी उकता गई तो क्या होगा। |
रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर; वही निकले सरीर-आरा क़यामत में ख़ुदा हो कर; हक़ीक़त-दर-हक़ीक़त बुत-कदे में है न काबे में; निगाह-ए-शौक़ धोखे दे रही है रहनुमा हो कर; अभी कल तक जवानी के ख़ुमिस्ताँ थे निगाहों में; ये दुनिया दो ही दिन में रह गई है क्या से क्या हो कर; मेरे सज़्दों की या रब तिश्ना-कामी क्यों नहीं जाती; ये क्या बे-ए'तिनाई अपने बंदे से ख़ुदा हो कर; बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे; हमेशा बेवफ़ाओं से मिलेंगे बा-वफ़ा हो कर। |
आज भड़की रग-ए-वहशत... आज भड़की रग-ए-वहशत तेरे दीवानों की; क़िस्मतें जागने वाली हैं बयाबानों की; फिर घटाओं में है नक़्क़ारा-ए-वहशत की सदा; टोलियाँ बंध के चलीं दश्त को दीवानों की; आज क्या सूझ रही है तेरे दीवानों को; धज्जियाँ ढूँढते फिरते हैं गरेबानों की; रूह-ए-मजनूँ अभी बेताब है सहराओं में; ख़ाक बे-वजह नहीं उड़ती बयाबानों की; उस ने 'एहसान' कुछ इस नाज़ से मुड़ कर देखा; दिल में तस्वीर उतर आई परी-ख़ानों की। |
इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया; ऐ ख़याल-ए-दोस्त ये क्या हो गया क्या कर दिया; ज़र्रे ज़र्रे ने मेरा अफ़्साना सुन कर दाद दी; मैंने वहशत में जहाँ को तेरा शैदा कर दिया; तूर पर राह-ए-वफ़ा में बो दिए काँटे कलीम; इश्क़ की वुसअत को मस्दूद-ए-तक़ाज़ा कर दिया; बिस्तर-ए-मशरिक़ से सूरज ने उठाया अपना सर; किस ने ये महफ़िल में ज़िक्र-ए-हुस्न-ए-यक्ता कर दिया; मुद्दा-ए-दिल कहूँ 'एहसान' किस उम्मीद पर; वो जो चाहेंगे करेंगे और जो चाहा कर दिया। |