कितने शिकवे गिल हैं पहले ही, राह में फ़ासले हैं पहले ही; कुछ तलाफ़ी निगार-ए-फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ, हम लुटे क़ाफ़िले हैं पहले ही; और ले जाए गा कहाँ गुचीं, सारे मक़्तल खुले हैं पहले ही; अब ज़बाँ काटने की रस्म न डाल, कि यहाँ लब सिले हैं पहले ही; और किस शै की है तलब 'फ़ारिग़', दर्द के सिलसिले हैं पहले ही। |