एक दीवाने को जो आए हैं समझाने कई; पहले मैं दीवाना था और अब हैं दीवाने कई! |
ये किसने गला घोंट दिया जिन्दादिली का, चेहरे पे हँसी है कि जनाजा है हँसी का; हर हुस्न में उस हुस्न की हल्की सी झलक है, दीदार का हक मुझको है जल्वा हो किसी का; रक्साँ है कोई हूर कि लहराती है सहबा, उड़ना कोई देखे मिरे शीशे की परी का; जब रात गले मिलके बिछड़ती है सहर से, याद आता है मंजर तेरी रूखसत की घड़ी का; उन आँखों के पैमानों से छलकी जो जरा सी, मैखाने में होश उड़ गया शीशे की परी का; रूस्वा है 'नजीर' अपने ही बुतखाने की हद में, दीवाना अगर है तो बनारस की गली का। |
बुझा है दिल भरी महफ़िल में रौशनी देकर, मरूँगा भी तो हज़ारों को ज़िन्दगी देकर; क़दम-क़दम पे रहे अपनी आबरू का ख़याल, गई तो हाथ न आएगी जान भी देकर; बुज़ुर्गवार ने इसके लिए तो कुछ न कहा, गए हैं मुझको दुआ-ए-सलामती देकर; हमारी तल्ख़-नवाई को मौत आ न सकी, किसी ने देख लिया हमको ज़हर भी देकर; न रस्मे दोस्ती उठ जाए सारी दुनिया से, उठा न बज़्म से इल्ज़ामे दुश्मनी देकर; तिरे सिवा कोई क़ीमत चुका नहीं सकता, लिया है ग़म तिरा दो नयन की ख़ुशी देकर। |