इतने कहाँ मसरूफ हो गए हो आजकल; की अब दिल दुखाने भी नहीं आते! |
एक उम्र से तराश रहा हूँ खुद को, कि हो जाऊं लोगो के मुताबिक; पर हर रोज ये जमाना मुझमे, एक नया ऐब निकाल लेता है! |
जिंदगी जैसे जलानी थी वैसे जला दी हमने गालिब; अब धुएँ पर बहस कैसी और राख पर ऐतराज कैसा! |
सुना था लोगों से वक्त बदलता है; आज वक्त ने बताया लोग बदलते हैं! |
इस दिल को और बेकरार तो होना ही था; किसी न किसी से उसे प्यार तो होना ही था! तुम अपने आस्तीन में गर साँप पाल रहे हो; आप को थौड़ा ख़बरदार तो होना ही था! |
फ़िक्र-ए-रोज़गार ने फ़ासले बढा दिए; वरना सब यार एक साथ थे, अभी कल ही की तो बात है! |
मुझको पढ़ पाना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं। मै वो किताब हूँ जिसमे शब्दों की जगह जज्बात लिखे है। |
ये कश्मकश है ज़िंदगी की, कि कैसे बसर करें, ख़्वाहिशें दफ़न करें, या चादर बड़ी करें! |
खामोशियाँ ही बेहतर हैं जिंदगी के सफर में; लफ्जों की मार ने कई घर तबाह किये! |
दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है, आखिर इस दर्द की दवा क्या है, हमको उनसे है उम्मीद वफ़ा की, जो जानते ही नहीं वफ़ा क्या है। |