हम भी मजबूरियों का उज़्र करें; फिर कहीं और मुब्तला हो जाएँ! |
मुझ से लाग़र तेरी आँखों में खटकते तो रहे; तुझ से नाज़ुक मेरी नज़रों में समाते भी नहीं! |
हथेली पर रखकर नसीब, तु क्यो अपना मुकद्दर ढूँढ़ता है; सीख उस समन्दर से, जो टकराने के लिए पत्थर ढूँढ़ता है! |
शाम-ए-ग़म कुछ उस निग़ाह-ए-नाज़ की बातें करो; बेखुदी बढ़ती चली है, राज़ की बातें करो! शाम-ए-ग़म: दर्द भरी शाम निग़ाह-ए-नाज़: प्रेमिका की नज़र बेखुदी: बेहोशी |
झूठ कहूँ तो लफ़्ज़ों का दम घुटता है, सच कहूँ तो लोग खफा हो जाते हैं! |
शाम-ए-ग़म कुछ उस निग़ाह-ए-नाज़ की बातें करो; बेखुदी बढ़ती चली है, राज़ की बातें करो! |
बहुत शौक था मुझे सबको जोडकर रखने का, होश तब आया जब खुद के वजूद के टुकडे हो गये। |
आगे आती थी हाल-ए-दिल पर हंसी; अब किसी बात पर नहीं आती! |
आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक; कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक! |
कपड़े से तो, परदा होता है साहब; हिफाज़त तो, निगाहों से होती है| |