ग़ज़ल Hindi Shayari

  • कलकत्ते का जो ज़िक्र...

    कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं;
    इक तीर मेरे सीने में मारा के हाये हाये;

    वो सब्ज़ा ज़ार हाये मुतर्रा के है ग़ज़ब;
    वो नाज़नीं बुतान-ए-ख़ुदआरा के हाये हाये;

    सब्रआज़्मा वो उन की निगाहें के हफ़ नज़र;
    ताक़तरूबा वो उन का इशारा के हाये हाये;

    वो मेवा हाये ताज़ा-ए-शीरीं के वाह वाह;
    वो बादा हाये नाब-ए-गवारा के हाये हाये।
    ~ Mirza Ghalib
  • फिर इस अंदाज़ से...

    फिर इस अंदाज़ से बहार आई;
    के हुये मेहर-ओ-माह तमाशाई;

    देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक;
    इस को कहते हैं आलम-आराई;

    के ज़मीं हो गई है सर ता सर;
    रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई;

    सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली;
    बन गया रू-ए-आब पर काई;

    सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये;
    चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई;

    है हवा में शराब की तासीर;
    बदानोशी है बाद पैमाई;

    क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब";
    शाह-ए-दीदार ने शिफ़ा पाई।
    ~ Mirza Ghalib
  • अब कहाँ रस्म...

    अब कहाँ रस्म घर लुटाने की;
    बरकतें थी शराब ख़ाने की;

    कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे;
    जान देने की दिल लगाने की;

    बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल;
    उनसे जो बात थी बताने की;

    साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल;
    रह गई आरज़ू सुनाने की;

    चाँद फिर आज भी नहीं निकला;
    कितनी हसरत थी उनके आने की।
    ~ Ahmad Faraz
  • एक-एक क़तरे का...

    एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब;
    ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़गान-ए-यार था;

    अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू;
    तोड़ा जो तू ने आईना तिम्सालदार था;

    गलियों में मेरी नाश को खेंचे फिरो कि मैं;
    जाँ दाद-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था;

    मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल;
    हर ज़र्रा मिस्ले-जौहरे-तेग़ आबदार था;

    कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब;
    देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था।
    ~ Mirza Ghalib
  • तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म...

    तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते है;
    किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते है;

    हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते है;
    तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते है;

    हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है;
    जो अब भी तेरी गली गली से गुज़रने लगते हैं;

    सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन;
    तो चश्म-ए-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं;

    वो जब भी करते हैं इस नुत्क़-ओ-लब की बख़ियागरी;
    फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं;

    दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है;
    तो "फ़ैज़" दिल में सितारे उतरने लगते है।
    ~ Faiz Ahmad Faiz
  • ये क्या के सब...

    ये क्या के सब से बयाँ दिल की हालतें करनी;
    ​'फ़राज़​'​ तुझको न ​​आई मुहब्बतें करनी;

    ये क़ुर्ब क्या है के ​तु​ सामने है और हमें;
    शुमार अभी से जुदाई की स'अतें करनी;

    कोई ख़ुदा होके पत्थर जिसे भी हम चाहें;
    तमाम उम्र उसी की इबादतें करनी;

    सब अपने अप​ने क़रीने से मुंतज़िर उसके;
    किसी को शुक्र किसी को शिकायतें करनी;

    हम अपने दिल से हैं मजबूर और लोगों को;
    ज़रा सी बात पे बरपा क़यामतें करनी।
    ~ Ahmad Faraz
  • दिल को अब यूँ...

    दिल को अब यूँ तेरी हर एक अदा लगती है;
    जिस तरह नशे की हालत में हवा लगती है;

    रतजगे खवाब परेशाँ से कहीं बेहतर हैं;
    लरज़ उठता हूँ अगर आँख ज़रा लगती है;

    ऐ, रगे-जाँ के मकीं तू भी कभी गौर से सुन;
    दिल की धडकन तेरे कदमों की सदा लगती है;

    गो दुखी दिल को हमने बचाया फिर भी;
    जिस जगह जखम हो वाँ चोट लगती है;

    शाखे-उममीद पे खिलते हैं तलब के गुनचे;
    या किसी शोख के हाथों में हिना लगती है;

    तेरा कहना कि हमें रौनके महफिल में "फराज़";
    गो तसलली है मगर बात खुदा लगती है।
    ~ Ahmad Faraz
  • सोच में उनके...

    सोच में उनके ईमान हो;
    तब तो कोई समाधान हो;

    कोई ज़रिया दिखाई तो दे;
    कोई मुश्किल तो आसान हो;

    हद है तेरे लिए ज़िंदगी;
    कोई कितना परेशान हो;

    और कुछ हो ना हो आदमी;
    आदमी एक इंसान हो;

    उसको फिर और क्या चाहिए;
    दिल में जीने का अरमान हो!
    ~ Ashok Rawat
  • तुझे उदास किया...

    तुझे उदास किया खुद भी सोगवार हुए;
    हम आप अपनी मोहब्बत से शर्मसार हुए;

    बला की रौ थी नदीमाने-आबला-पा को;
    पलट के देखना चाहा कि खुद गुबार हुए;

    गिला उसी का किया जिससे तुझपे हर्फ़ आया;
    वरना यूँ तो सितम हम पे बेशुमार हुए;

    ये इन्तकाम भी लेना था ज़िन्दगी को अभी;
    जो लोग दुश्मने-जाँ थे, वो गम-गुसार हुए;

    हजार बार किया तर्के-दोस्ती का ख्याल;
    मगर फ़राज़ पशेमाँ हर एक बार हुए।
    ~ Ahmad Faraz
  • ज़िन्दगी से यही...

    ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे;
    तू बहुत देर से मिला है मुझे;

    हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं;
    इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे;

    तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल;
    हार जाने का हौसला है मुझे;

    लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ;
    कत्ल होने का हौसला है मुझे;

    दिल धडकता नहीं सुलगता है;
    वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे;

    कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़;
    क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे।
    ~ Ahmad Faraz