कलकत्ते का जो ज़िक्र... कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं; इक तीर मेरे सीने में मारा के हाये हाये; वो सब्ज़ा ज़ार हाये मुतर्रा के है ग़ज़ब; वो नाज़नीं बुतान-ए-ख़ुदआरा के हाये हाये; सब्रआज़्मा वो उन की निगाहें के हफ़ नज़र; ताक़तरूबा वो उन का इशारा के हाये हाये; वो मेवा हाये ताज़ा-ए-शीरीं के वाह वाह; वो बादा हाये नाब-ए-गवारा के हाये हाये। |
फिर इस अंदाज़ से... फिर इस अंदाज़ से बहार आई; के हुये मेहर-ओ-माह तमाशाई; देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक; इस को कहते हैं आलम-आराई; के ज़मीं हो गई है सर ता सर; रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई; सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली; बन गया रू-ए-आब पर काई; सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये; चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई; है हवा में शराब की तासीर; बदानोशी है बाद पैमाई; क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"; शाह-ए-दीदार ने शिफ़ा पाई। |
अब कहाँ रस्म... अब कहाँ रस्म घर लुटाने की; बरकतें थी शराब ख़ाने की; कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे; जान देने की दिल लगाने की; बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल; उनसे जो बात थी बताने की; साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल; रह गई आरज़ू सुनाने की; चाँद फिर आज भी नहीं निकला; कितनी हसरत थी उनके आने की। |
एक-एक क़तरे का... एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब; ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़गान-ए-यार था; अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू; तोड़ा जो तू ने आईना तिम्सालदार था; गलियों में मेरी नाश को खेंचे फिरो कि मैं; जाँ दाद-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था; मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल; हर ज़र्रा मिस्ले-जौहरे-तेग़ आबदार था; कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब; देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था। |
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म... तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते है; किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते है; हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते है; तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते है; हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है; जो अब भी तेरी गली गली से गुज़रने लगते हैं; सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन; तो चश्म-ए-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं; वो जब भी करते हैं इस नुत्क़-ओ-लब की बख़ियागरी; फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं; दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है; तो "फ़ैज़" दिल में सितारे उतरने लगते है। |
ये क्या के सब... ये क्या के सब से बयाँ दिल की हालतें करनी; 'फ़राज़' तुझको न आई मुहब्बतें करनी; ये क़ुर्ब क्या है के तु सामने है और हमें; शुमार अभी से जुदाई की स'अतें करनी; कोई ख़ुदा होके पत्थर जिसे भी हम चाहें; तमाम उम्र उसी की इबादतें करनी; सब अपने अपने क़रीने से मुंतज़िर उसके; किसी को शुक्र किसी को शिकायतें करनी; हम अपने दिल से हैं मजबूर और लोगों को; ज़रा सी बात पे बरपा क़यामतें करनी। |
दिल को अब यूँ... दिल को अब यूँ तेरी हर एक अदा लगती है; जिस तरह नशे की हालत में हवा लगती है; रतजगे खवाब परेशाँ से कहीं बेहतर हैं; लरज़ उठता हूँ अगर आँख ज़रा लगती है; ऐ, रगे-जाँ के मकीं तू भी कभी गौर से सुन; दिल की धडकन तेरे कदमों की सदा लगती है; गो दुखी दिल को हमने बचाया फिर भी; जिस जगह जखम हो वाँ चोट लगती है; शाखे-उममीद पे खिलते हैं तलब के गुनचे; या किसी शोख के हाथों में हिना लगती है; तेरा कहना कि हमें रौनके महफिल में "फराज़"; गो तसलली है मगर बात खुदा लगती है। |
सोच में उनके... सोच में उनके ईमान हो; तब तो कोई समाधान हो; कोई ज़रिया दिखाई तो दे; कोई मुश्किल तो आसान हो; हद है तेरे लिए ज़िंदगी; कोई कितना परेशान हो; और कुछ हो ना हो आदमी; आदमी एक इंसान हो; उसको फिर और क्या चाहिए; दिल में जीने का अरमान हो! |
तुझे उदास किया... तुझे उदास किया खुद भी सोगवार हुए; हम आप अपनी मोहब्बत से शर्मसार हुए; बला की रौ थी नदीमाने-आबला-पा को; पलट के देखना चाहा कि खुद गुबार हुए; गिला उसी का किया जिससे तुझपे हर्फ़ आया; वरना यूँ तो सितम हम पे बेशुमार हुए; ये इन्तकाम भी लेना था ज़िन्दगी को अभी; जो लोग दुश्मने-जाँ थे, वो गम-गुसार हुए; हजार बार किया तर्के-दोस्ती का ख्याल; मगर फ़राज़ पशेमाँ हर एक बार हुए। |
ज़िन्दगी से यही... ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे; तू बहुत देर से मिला है मुझे; हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं; इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे; तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल; हार जाने का हौसला है मुझे; लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ; कत्ल होने का हौसला है मुझे; दिल धडकता नहीं सुलगता है; वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे; कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़; क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे। |