दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी; 'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए! *मय-कदे: शराबख़ाना |
ख़फ़ा हैं फिर भी आ कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में; हमारे हाल पर कुछ मेहरबानी अब भी होती है! *तसव्वुर: कल्पना |
ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना; ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते! |
उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है; दो ज़हर के प्यालों में क़ज़ा खेल रही है! * हया: शर्म * क़ज़ा: मृत्यु |
काँटों से दिल लगाओ जो ता-उम्र साथ दें; फूलों का क्या जो साँस की गर्मी न सह सकें! |
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या; क्या बताऊँ कि मेरे दिल में है अरमाँ क्या क्या! |
इन्हीं ग़म की घटाओं से ख़ुशी का चाँद निकलेगा; अँधेरी रात के पर्दे में दिन की रौशनी भी है! |
जवानी हो ग़र जावेदानी तो यारब; तेरी सादा दुनिया को जन्नत बना दें! |