दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी; 'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए! *मय-कदे: शराबख़ाना |
ख़फ़ा हैं फिर भी आ कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में; हमारे हाल पर कुछ मेहरबानी अब भी होती है! *तसव्वुर: कल्पना |
ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना; ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते! |
उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है; दो ज़हर के प्यालों में क़ज़ा खेल रही है! * हया: शर्म * क़ज़ा: मृत्यु |
काँटों से दिल लगाओ जो ता-उम्र साथ दें; फूलों का क्या जो साँस की गर्मी न सह सकें! |
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या; क्या बताऊँ कि मेरे दिल में है अरमाँ क्या क्या! |
इन्हीं ग़म की घटाओं से ख़ुशी का चाँद निकलेगा; अँधेरी रात के पर्दे में दिन की रौशनी भी है! |
जवानी हो ग़र जावेदानी तो यारब; तेरी सादा दुनिया को जन्नत बना दें! |
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए, वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए; वीराँ हैं सहन-ओ-बाग़ बहारों को क्या हुआ, वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए; है नज्द में सुकूत हवाओं को क्या हुआ, लैलाएँ हैं ख़मोश दिवाने किधर गए; उजड़े पड़े हैं दश्त ग़ज़ालों पे क्या बनी, सूने हैं कोहसार दिवाने किधर गए; v वो हिज्र में विसाल की उम्मीद क्या हुई, वो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गए; दिन रात मैकदे में गुज़रती थी ज़िन्दगी, 'अख़्तर' वो बेख़ुदी के ज़माने किधर गए। |
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता; तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता; तर्क-ए-दुनिया का ये दावा है फ़ुज़ूल ऐ ज़ाहिद; बार-ए-हस्ती तो ज़रा सर से उतारा होता; वो अगर आ न सके मौत ही आई होती; हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता; ज़िन्दगी कितनी मुसर्रत से गुज़रती या रब; ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता; अज़मत-ए-गिर्या को कोताह-नज़र क्या समझें; अश्क अगर अश्क न होता तो सितारा होता; कोई हम-दर्द ज़माने में न पाया 'अख़्तर'; दिल को हसरत ही रही कोई हमारा होता। |