'मीर' अमदन भी कोई मरता है; जान है तो जहान है प्यारे। |
अब जो एक हसरत-ए-जवानी है; उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है! |
मेरा जी तो आँखों में आया ये सुनते; कि दीदार भी एक दिन आम होगा! *जी: दिल |
वस्ल में रंग उड़ गया मेरा; क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा! *वस्ल: मिलन |
फिरते है मीर अब कहाँ, कोई पूछता नहीं; इस आशिक़ी में इज़्ज़त सादात भी गयी! |
मेह वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब; आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना; मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते `ग़ालिब`; अर्श से इधर होता काश के माकन अपना! |
फिरते है मीर अब कहाँ ,कोई पूछता नहीं; इस आशिक़ी में इज़्ज़त सादात भी गयी |
वो आये बज़्म में इतना तो मीर ने देखा; फिर उसके बाद चिरागो में रौशनी ही नहीं रही! |
शर्मिंदा होंगे, जाने भी दो इम्तिहान को; रखेगा तुम को कौन अज़ीज़, अपनी जान से! |
अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे; पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे। |