ये आइने अब घर के सँवरते क्यूँ नहीं; वो ज़ुल्फ़ के सायें बिखरते क्यूँ नहीं; लगता है ऐसे के बिछड़े हैं अभी-अभी; भूले से भी उन्हें हम भूलते क्यूँ नहीं! |
ख़ुशी और ग़म को समझता नहीं हूँ; वही है हाल अब जो कहता नहीं हूँ; ये वादों - कसमों को निभाना क्या है; मैं तो इक पल भी तुम्हें भूलता नहीं हूँ! |
रिश्तों को शब्दों का मोहताज ना बनाइये, वो अगर खामोश है तो आप ही आवाज़ लगाइये! |
इजहार गर जुबां से हो तो मजा क्या है; चाहने वाला जो निगाहों को पढ़े तो बुरा क्या है! |
मसरूफ़ हैं यहाँ लोग, दूसरों की कहानियाँ जानने में; इतनी शिद्दत से ख़ुद को अगर पढ़ते, तो ख़ुद़ा हो जाते! |
किताब -ए- दिल का कोई भी पन्ना सादा नहीं होता; निगाह उस को भी पढ़ लेती है जो लिखा नही होता! |
देख कर मेरी आँखें, एक फकीर कहने लगा; पलकें तुम्हारी नाज़ुक है, खवाबों का वज़न कम कीजिये! |
रुतबा तो खामोशियों का होता है; अल्फ़ाज़ का क्या वह तो मुकर जाते हैं हालात देखकर। |
बुलबुल के परो में बाज़ नहीं होते; कमजोर और बुजदिलो के हाथो में राज नहीं होते; जिन्हें पड़ जाती है झुक कर चलने की आदत; दोस्तों उन सिरों पर कभी ताज नहीं होते! |
कोई प्यार से जरा सी फुंक मार दे तो बुझ जाऊं; नफरत से तो तुफान भी हार गए मुझे बुझाने में! |