आज की रात भी तन्हा ही कटी; आज के दिन भी अंधेरा होगा! |
मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ; मेरे हमराह दरिया जा रहा है! |
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ; हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं; तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था; मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ; सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें; मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ; वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल; यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ; दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता; मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ; एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद; हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ। |
किस को क़ातिल मैं कहूँ... किस को क़ातिल मैं कहूँ किस को मसीहा समझूँ; सब यहाँ दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूँ वो भी क्या दिन थे कि हर वहम यकीं होता था; अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूँ; दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे; ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूँ; ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी; लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूँ। |
जाने कहाँ थे और और चले थे कहाँ से हम; बेदार हो गए किसी ख्वाब-ए-गिराँ से हम; ऐ नौ-बहार-ए-नाज़ तेरी निकहतों की खैर; दामन झटक के निकले तेरे गुलसिताँ से हम। |
फ़क़त इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें; मैं तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयाँ तक देखूँ। |
क्या भला मुझ को... क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला; ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला; तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने; तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला; जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने; बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला; तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर; डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला। |
मैं समझता था कि लौट आते हैं जाने वाले तूने जा कर तो जुदाई मेरी क़िस्मत कर दी। |
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ; हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं; तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था; मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ; सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें; मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ; वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल; यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ; दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता; मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ; एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद; हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ। |
तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत... तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत से अगर नफ़रत है; तूने होठों के लरज़ने को तो रोका होता; बे-नियाज़ी से, मगर कांपती आवाज़ के साथ; तूने घबरा के मेरा नाम न पूछा होता; तेरे बस में थी अगर मशाल-ए-जज़्बात की लौ; तेरे रुख्सार में गुलज़ार न भड़का होता; यूं तो मुझसे हुई सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें; अपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होता; यूं ही बेवजह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी; दम-ए-रुख्सत में अगर याद न आया होता। |