सफ़ीना ग़र्क़ हुआ मेरा यूँ ख़ामोशी से; के सतह-ए-आब पे कोई हबाब तक न उठा; समझ न इज्ज़ इसे तेरे पर्दा-दार थे हम; हमारा हाथ जो तेरे नक़ाब तक न उठा; झिंझोड़ते रहे घबरा के वो मुझे लेकिन; मैं अपनी नींद से यौम-ए-हिसाब तक न उठा; जतन तो ख़ूब किए उस ने टालने के मगर; मैं उस की बज़्म से उस के जवाब तक न उठा। |
ये दिल में वसवसा क्या पल रहा है; तेरा मिलना भी मुझ को खल रहा है; जिसे मैंने किया था बे-ख़ुदी में; जबीं पर अब वो सजदा जल रहा है; मुझे मत दो मुबारक-बाद-ए-हस्ती; किसी का है ये साया चल रहा है; सर-ए-सहरा सदा दिल के शजर से; बरसता दूर एक बादल रहा है; फ़साद-ए-लग़्ज़िश-ए-तख़लीक़-ए-आदम; अभी तक हाथ यज़दाँ मल रहा है; दिलों की आग क्या काफ़ी नहीं है; जहन्नम बे-ज़रूरत जल रहा है। |