ये आरज़ू थी... ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते; हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते; पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ; ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते; मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा; किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते; जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम; असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते; न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-'आतिश'; बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते। |
तड़पते हैं न रोते हैं न हम फ़रियाद करते हैं; सनम की याद में हर-दम ख़ुदा को याद करते हैं; उन्हीं के इश्क़ में हम नाला-ओ-फ़रियाद करते हैं; इलाही देखिये किस दिन हमें वो याद करते हैं। |
रख के मुँह सो गए हम आतिशीं रुख़्सारों पर; दिल को था चैन तो नींद आ गई अँगारों पर। |
ये आरज़ू थी तुझे गुल के... ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते; हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते; पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ; ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते; मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा; किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते; जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम; असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते; न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-आतिश; बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते। |
चुरा के मुट्ठी में दिल को छिपाए बैठे है; बहाना यह है कि मेहंदी लगाए बैठे है। |