हर एक रात को महताब देखने के लिए; मैं जागता हूँ तेरा ख़्वाब देखने के लिए! *महताब: चाँद |
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं; मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं; ज़िहानतों को कहाँ वक़्त ख़ूँ बहाने का; हमारे शहर में किरदार क़त्ल होते हैं; फ़ज़ा में हम ही बनाते हैं आग के मंज़र; समंदरों में हमीं कश्तियाँ डुबोते हैं; पलट चलें के ग़लत आ गए हमीं शायद; रईस लोगों से मिलने के वक़्त होते हैं; मैं उस दियार में हूँ बे-सुकून बरसों से; जहाँ सुकून से अजदाद मेरे सोते हैं; गुज़ार देते हैं उम्रें ख़ुलूस की ख़ातिर; पुराने लोग भी 'अज़हर' अजीब होते हैं। |
इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गए; उन की सहेलियों के भी आँचल भिगो गए; चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर; जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए। |
इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गए; उन की सहेलियों के भी आँचल भिगो गए; चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर; जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए; सब देख कर गुज़र गए एक पल में और हम; दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए; मुझ को भी जागने की अज़ीयत से दे नजात; ऐ रात अब तो घर के दर ओ बाम सो गए; किस किस से और जाने मोहब्बत जताते हम; अच्छा हुआ कि बाल ये चाँदी के हो गए; इतनी लहू-लुहान तो पहले फ़ज़ा न थी; शायद हमारी आँखों में अब ज़ख़्म हो गए; इख़्लास का मुज़ाहिरा करने जो आए थे; 'अज़हर' तमाम ज़ेहन में काँटे चुभो गए। |
ग़मों से यूँ वो फ़रार... ग़मों से यूँ वो फ़रार इख़्तियार करता था; फ़ज़ा में उड़ते परिंदे शुमार करता था; बयान करता था दरिया के पार के क़िस्से; ये और बात वो दरिया न पार करता था; बिछड़ के एक ही बस्ती में दोनों ज़िंदा हैं; मैं उस से इश्क़ तो वो मुझ से प्यार करता था; यूँ ही था शहर की शख़्सियतों को रंज उस से; कि वो ज़िदें भी बड़ी पुर-वक़ार करता था; कल अपनी जान को दिन में बचा नहीं पाया; वो आदमी के जो आहाट पे वार करता था; सदाक़तें थीं मेरी बंदगी में जब 'अज़हर'; हिफ़ाज़तें मेरी परवर-दिगार करता था। |
अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास; कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना। |
अभी महफ़िल में चेहरे नादान नज़र आते हैं; लौ चिरागों की ज़रा और घटा दी जाये। |