हर शाम जलते जिस्मों का गाढ़ा धुआँ है शहर; मरघट कहाँ है कोई बताओ कहाँ है यह शहर; फुटपाथ पर जो लाश पड़ी है उसी की है; जिस गाँव को यकीं था की रोज़ी-रसाँ है शहर; मर जाइए तो नाम-ओ-नसब पूछता नहीं; मुर्दों के सिलसिले में बहुत मेहरबाँ है शहर; रह-रह कर चीख़ उठते हैं सन्नाटे रात को; जंगल छुपे हुए हैं वहीं पर जहाँ है शहर; भूचाल आते रहते हैं और टूटता नहीं; हम जैसे मुफ़लिसों की तरह सख़्त जाँ है शहर; लटका हुआ ट्रेन के डिब्बों में सुबह-ओ-शाम; लगता है अपनी मौत के मुँह में रवाँ है शहर। |
उन्हें सवाल ही लगता है... उन्हें सवाल ही लगता है मेरा रोना भी; अजब सज़ा है जहाँ में ग़रीब होना भी; ये रात भी है ओढ़ना-बिछौना भी; इस एक रात में है जागना भी सोना भी; अजीब शहर है कि घर भी रास्तों की तरह; कैसा नसीब है रातों को छुप के रोना भी; खुले में सोएँगे मोतिया के फूलों से; सजा लो ज़ुल्फ़ बसा लो ज़रा बिछौना भी; 'अज़ीज़' कैसी यह सौदागरों की बस्ती है; गराँ है दिल से यहाँ काठ का खिलौना भी। |
आपको देखकर... आपको देखकर देखता रह गया; क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया; उनकी आँखों में कैसे छलकने लगा; मेरे होंठों पे जो माजरा रह गया; ऐसे बिछड़े सभी राह के मोड़ पर; आखिरी हमसफ़र रास्ता रह गया; सोच कर आओ कू-ए-तमन्ना है ये; जानेमन जो यहाँ रह गया रह गया! अनुवाद: कू-ए-तमन्ना = इच्छाओं की गली |
उलझाव का मज़ा भी... उलझाव का मज़ा भी तेरी बात ही में था; तेरा जवाब तेरे सवालात ही में था; साया किसी यक़ीं का भी जिस पर न पड़ सका; वो घर भी शहर-ए-दिल के मुज़ाफ़ात ही में था; इलज़ाम क्या है ये भी न जाना तमाम उम्र; मुल्ज़िम तमाम उम्र हवालात ही में था; अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ; था रब्त जान-ओ-दिल का तो शुरूआत ही में था; मुझ को तो क़त्ल करके मनाता रहा है जश्न; वो ज़िलिहाज़ शख़्स मेरी ज़ात ही में था। |