Aziz Qaizi Hindi Shayari

  • हर शाम जलते जिस्मों का गाढ़ा धुआँ है शहर;
    मरघट कहाँ है कोई बताओ कहाँ है यह शहर;

    फुटपाथ पर जो लाश पड़ी है उसी की है;
    जिस गाँव को यकीं था की रोज़ी-रसाँ है शहर;

    मर जाइए तो नाम-ओ-नसब पूछता नहीं;
    मुर्दों के सिलसिले में बहुत मेहरबाँ है शहर;

    रह-रह कर चीख़ उठते हैं सन्नाटे रात को;
    जंगल छुपे हुए हैं वहीं पर जहाँ है शहर;

    भूचाल आते रहते हैं और टूटता नहीं;
    हम जैसे मुफ़लिसों की तरह सख़्त जाँ है शहर;

    लटका हुआ ट्रेन के डिब्बों में सुबह-ओ-शाम;
    लगता है अपनी मौत के मुँह में रवाँ है शहर।
    ~ Aziz Qaizi
  • उन्हें सवाल ही लगता है...

    उन्हें सवाल ही लगता है मेरा रोना भी;
    अजब सज़ा है जहाँ में ग़रीब होना भी;

    ये रात भी है ओढ़ना-बिछौना भी;
    इस एक रात में है जागना भी सोना भी;

    अजीब शहर है कि घर भी रास्तों की तरह;
    कैसा नसीब है रातों को छुप के रोना भी;

    खुले में सोएँगे मोतिया के फूलों से;
    सजा लो ज़ुल्फ़ बसा लो ज़रा बिछौना भी;

    'अज़ीज़' कैसी यह सौदागरों की बस्ती है;
    गराँ है दिल से यहाँ काठ का खिलौना भी।
    ~ Aziz Qaizi
  • आपको देखकर...

    आपको देखकर देखता रह गया;
    क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया;

    उनकी आँखों में कैसे छलकने लगा;
    मेरे होंठों पे जो माजरा रह गया;

    ऐसे बिछड़े सभी राह के मोड़ पर;
    आखिरी हमसफ़र रास्ता रह गया;

    सोच कर आओ कू-ए-तमन्ना है ये;
    जानेमन जो यहाँ रह गया रह गया!

    अनुवाद:
    कू-ए-तमन्ना = इच्छाओं की गली
    ~ Aziz Qaizi
  • उलझाव का मज़ा भी...

    उलझाव का मज़ा भी तेरी बात ही में था;
    तेरा जवाब तेरे सवालात ही में था;

    साया किसी यक़ीं का भी जिस पर न पड़ सका;
    वो घर भी शहर-ए-दिल के मुज़ाफ़ात ही में था;

    इलज़ाम क्या है ये भी न जाना तमाम उम्र;
    मुल्ज़िम तमाम उम्र हवालात ही में था;

    अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ;
    था रब्त जान-ओ-दिल का तो शुरूआत ही में था;

    मुझ को तो क़त्ल करके मनाता रहा है जश्न;
    वो ज़िलिहाज़ शख़्स मेरी ज़ात ही में था।
    ~ Aziz Qaizi