बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी; जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी! |
देखिए, देते हैं इस पर आप हमको क्या सज़ा, दे दिया दिल तुमको ये तकसीर' हमने की तो है; ज़ोर पर आया है जय सौदा'-ए-जुल्फे-पुरशिकन, टुकड़े-टुकड़े तोड़कर जंजीर हमने की तो है! |
आज वस्ले-यार की तदवीर हमने की तो है, हो न हो, पर कोशिशे-तकदीर हमने की तो है; जी डरे है, काग़जे-कासिद न जल जाएं कहीं, सोजिशे-दिल', खत में कुछ तहरीर हमने की तो है! |
कहां तक चुप रहूँ, चुपके रहने से कुछ नहीं होता, कहूँ तो क्या कहूँ उनसे, कहे से कुछ नहीं होता; नहीं मुमकिन कि आए रहम उनको ऐ जफर मुहा पर, सहूँ जसके सितम क्या में, सहे से कुछ नहीं होता! |
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में, किसकी बनी है आलमे नापायदार में; बुलबुल को बागवां से न सैय्याद से गिला, किस्मत में कैद लिखी थी, फसले बहार में! |
है कितना बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्त के लिए; दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में! |
आप की खातिर से हम करते हैं जब्त-ए-इज्तिराब; देखकर बेताब मुझको और घबराते हैं आप। Meaning: 1. जब्त-ए-इज्तिराब - बेचैनी या बेकरारी पर काबू 2. बेताब - व्याकुल, बेचैन |
उम्र-ए-दराज मॉंग कर लाये थे चार दिन, दो आरजू में कट गये, दो इंतज़ार में; कितना है बदनसीब 'जफर', दफ्न के लिये दो गज जमीं भी न मिली कू-ए-यार में। Meaning: उम्र-ए-दराज - लंबी, तवील कू-ए-यार - प्रेमिका की गली |
क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते; कुछ करते हैं ऐसा ब-ख़ुदा कुछ नहीं करते; अपने मर्ज़-ए-ग़म का हकीम और कोई है; हम और तबीबों की दवा कुछ नहीं करते; मालूम नहीं हम से हिजाब उन को है कैसा; औरों से तो वो शर्म ओ हया कुछ नहीं करते; गो करते हैं ज़ाहिर को सफ़ा अहल-ए-कुदूरत; पर दिल को नहीं करते सफ़ा कुछ नहीं करते; वो दिल-बरी अब तक मेरी कुछ करते हैं लेकिन; तासीर तेरे नाले दिला कुछ नहीं करते; करते हैं वो इस तरह 'ज़फ़र' दिल पे जफ़ाएँ; ज़ाहिर में ये जानो के जफ़ा कुछ नहीं करते। |
हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए; ग़ुरूर छोड़ दो ऐ ग़ाफ़िलो ख़ुदा के लिए; गिरा दिया है हमें किस ने चाह-ए-उल्फ़त में; हम आप डूबे किसी अपने आशना के लिए; जहाँ में चाहिए ऐवान ओ क़स्र शाहों को; ये एक गुम्बद-ए-गर्दूं है बस गदा के लिए; वो आईना है के जिस को है हाजत-ए-सीमाब; इक इज़्तिराब है काफ़ी दिल-ए-सफ़ा के लिए; तपिश से दिल का हो क्या जाने सीने में क्या हाल; जो तेरे तीर का रोज़न न हो हवा के लिए; जो हाथ आए 'ज़फ़र' ख़ाक-पा-ए-फ़ख़रूद्दीन; तो मैं रखूँ उसे आँखों के तूतया के लिए। |