हम तो रात का मतलब समझें ख़्वाब, सितारे, चाँद, चिराग; आगे का अहवाल वो जाने जिस ने रात गुज़ारी हो! *अहवाल: परिस्थिति |
हमें तो ख़ैर बिखरना ही था कभी न कभी; हवा-ए-ताज़ा का झोंका बहाना हो गया है! |
अब आ गयी है सहर अपना घर सँभालने को; चलूँ कि जागा हुआ रात भर का मैं भी हूँ! |
बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है; उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है! |
तुम परिंदों से ज़्यादा तो नहीं हो आज़ाद; शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो! |
ज़वाले- शब् में किसी की सदा निकल आये, सितारा डूबे सितारा-नुमा निकल आये; अजब नहीं कि ये दरिया नज़र का धोका हो, अजब नहीं कि कोई रास्ता निकल आये; ये किसने दश्ते-बुरीदा की फसल बोई थी, तमाम शहर में नख़्ल-दुआ निकल आये; बड़ी घुटन है, चराग़ों का क्या ख़याल करूँ, अब इस तरफ कोई मौजे-हवा निकल आये; खुदा करे सफे-सरदारगाँ न हो ख़ाली, जो मैं गिरूँ तो कोई दूसरा निकल आये। |
कोई बिजली इन ख़राबों में घटा रौशन करे; ऐ अँधेरी बस्तियो! तुमको खुदा रौशन करे; नन्हें होंठों पर खिलें मासूम लफ़्ज़ों के गुलाब; और माथे पर कोई हर्फ़-ए-दुआ रौशन करे; ज़र्द चेहरों पर भी चमके सुर्ख जज़्बों की धनक; साँवले हाथों को भी रंग-ए-हिना रौशन करे; एक लड़का शहर की रौनक़ में सब कुछ भूल जाए; एक बुढ़िया रोज़ चौखट पर दिया रौशन करे; ख़ैर अगर तुम से न जल पाएँ वफाओं के चिराग; तुम बुझाना मत जो कोई दूसरा रौशन करे। |
होशियारी दिल-ए-नादान... होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है; रंज कम सहता है एलान बहुत करता है; रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चिराग; कम से कम रात का नुकसान बहुत करता है; आज कल अपना सफर तय नहीं करता कोई; हाँ सफर का सर-ओ-सामान बहुत करता है; अब ज़ुबान खंज़र-ए-कातिल की सना करती है; हम वो ही करते है जो खल्त-ए-खुदा करती है; हूँ का आलम है गिराफ्तारों की आबादी में; हम तो सुनते थे की ज़ंज़ीर सदा करती है। |
अजीब नशा है होशियार रहना चाहता हूँ; मैं उस के ख़्वाब में बेदार रहना चाहता हूँ; ये मौज-ए-ताज़ा मेरी तिश्नगी का वहम सही; मैं इस सराब में सरशार रहना चाहता हूँ। |
खुशबु की तरह साथ लगा ले गयी हम को; कूचे से तेरे बाद-ए-सबा ले गयी हम को; पत्थर थे कि गौहर थे अब इस बात का क्या ज़िक्र; इक मौज बहर-हाल बहा ले गयी हम को। शब्दार्थ: बाद-ए-सबा = सुबह की ठंडी हवा गौहर = मोती |