हम तो बचपन में भी अकेले थे; सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे! |
यही हालात इब्तिदा से रहे; लोग हम से ख़फ़ा ख़फ़ा से रहे! * इब्तिदा :आरम्भ, शुरुआत। |
इन चिराग़ों में तेल ही कम था; क्यों गिला फिर हमें हवा से रहे! |
क्यों डरे कि ज़िन्दग़ी में क्या होगा, हर वक़्त क्यों सोचे कि बुरा होगा; बढ़ते रहे बस मंज़िलो की ओर, हमे कुछ मिले या ना मिले, तज़ुर्बा तो नया होगा! |
ये ज़िंदगी भी अजब कारोबार है कि मुझे; ख़ुशी है पाने की कोई न रंज खोने का! |
जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता; मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता! |
जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता; मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता! |
मैं खुद भी सोचता हूँ... मैं खुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है; जिसका जवाब चाहिए, वो क्या सवाल है; घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था; क्या मुझसे खो गया है, मुझे क्या मलाल है; आसूदगी से दिल के सभी दाग धुल गए; लेकिन वो कैसे जाए, जो शीशे में बल है; बे-दस्तो-पा हू आज तो इल्जाम किसको दूँ; कल मैंने ही बुना था, ये मेरा ही जाल है; फिर कोई ख्वाब देखूं, कोई आरजू करूँ; अब ऐ दिल-ए-तबाह, तेरा क्या ख्याल है। |
दर्द अपनाता है... दर्द अपनाता है पराए कौन; कौन सुनता है और सुनाए कौन; कौन दोहराए वो पुरानी बात; ग़म अभी सोया है जगाए कौन; वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं; कौन दुख झेले आज़माए कौन; अब सुकूँ है तो भूलने में है; लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन; आज फिर दिल है कुछ उदास उदास; देखिये आज याद आए कौन। |
ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया; कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए। |