इसी ख्याल से गुज़री है शाम-ए-दर्द अक्सर; कि दर्द हद से जो गुज़रेगा मुस्कुरा दूंगा। |
एक पल में ज़िन्दगी भर की उदासी दे गया; वो जुदा होते हुए कुछ फूल बासी दे गया; नोच कर शाखों के तन से खुश्क पत्तों का लिबास; ज़र्द मौसम बाँझ रुत को बे-लिबासी दे गया। |
ज़माने भर की निगाहों में जो खुदा सा लगे; वो अजनबी है मगर मुझ को आशना सा लगे; न जाने कब मेरी दुनिया में मुस्कुराएगा; वो शख्स जो ख्वाबों में भी खफा सा लगे। |
देखी है बेरुखी की आज हम ने इन्तहा 'मोहसिन'; हम पे नज़र पड़ी तो वो महफ़िल से उठ गए। |
उस की चाहत का भरम क्या रखना; दश्त-ए-हिजरां में क़दम क्या रखना; हँस भी लेना कभी खुद पर 'मोहसिन'; हर घडी आँख को नम क्या रखना। |
ज़िन्दगी लोग जिसे मरहम-ए-ग़म जानते हैं; जिस तरह हम ने गुज़ारी है वो हम जानते हैं। |
हजूम में था, वो खुल कर ना रो सका होगा; मगर यकीन है कि शब् भर ना सो सका होगा। |
जो तेरी मुंतज़िर तीन वो आँखें ही बुझ गई; अब क्यों सजा रहा है चिरागों से शाम को। |
बस एक ही गलती हम सारी ज़िन्दगी करते रहे मोहसिन; धूल चेहरे पर थी और हम आईना साफ़ करते रहे। |