प्यास बढ़ती जा रही है बहता दरिया देख कर; भागती जाती हैं लहरें ये तमाशा देख कर! |
मुझ में सात समुंदर शोर मचाते हैं; एक ख़याल ने दहशत फैला रखी है! |
वही आँखों में और आँखों से पोशिदा भी रहता है, मेरी यादों में एक भूला हुआ चेहरा भी रहता है; जब उस की सर्द-मेहरी देखता हूँ बुझने लगता हूँ, मुझे अपनी अदाकारी का अंदाज़ा भी रहता है; मैं उन से भी मिला करता हूँ जिन से दिल नहीं मिलता, मगर ख़ुद से बिछड़ जाने का अंदेशा भी रहता है; जो मुमकिन हो तो पुर-असरार दुनियाओं में दाख़िल हो, कि हर दीवार में एक चोर दरवाज़ा भी रहता है; बस अपनी बे-बसी की सातवीं मंज़िल में ज़िंदा हूँ, यहाँ पर आग भी रहती है और नौहा भी रहता है। |
मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला; साक़ी मिरे मिज़ाज का मौसम नहीं मिला; मुझ में बसी हुई थी किसी और की महक; दिल बुझ गया कि रात वो बरहम नहीं मिला; बस अपने सामने ज़रा आँखें झुकी रहीं; वर्ना मिरी अना में कहीं ख़म नहीं मिला; उस से तरह तरह की शिकायत रही मगर; मेरी तरफ़ से रंज उसे कम नहीं मिला; एक एक कर के लोग बिछड़ते चले गए; ये क्या हुआ कि वक़्फ़ा-ए-मातम नहीं मिला। |
रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई; तेरी दर्द-गुसारी से भी रूह की उलझन कम न हुई; शाख़ से टूट के बे-हुरमत हैं वैसे बे-हुरमत थे; हम गिरते पत्तों पे मलामत कब मौसम मौसम न हुई; नाग-फ़नी सा शोला है जो आँखों में लहराता है; रात कभी हम-दम न बनी और नींद कभी मरहम न हुई; अब यादों की धूप छाँव में परछाईं सा फिरता हूँ; मैंने बिछड़ कर देख लिया है दुनिया नरम क़दम न हुई; मेरी सहरा-ज़ाद मोहब्बत अब्र-ए-सियह को ढूँडती है; एक जनम की प्यासी थी इक बूँद से ताज़ा-दम न हुई। |
तुम और किसी के हो तो हम और किसी के; और दोनों ही क़िस्मत की शिकायत नहीं करते। |