सफ़र पीछे की जानिब है क़दम आगे है मेरा; मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवाँ होने की ख़ातिर! |
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'; साफ़ पहचान लिया जाता हूँ रोया हुआ मैं! |
अब वही करने लगे दीदार से आगे की बात; जो कभी कहते थे बस दीदार होना चाहिए! |
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे, जितनी भी मुश्किल में हूँ आसान कर देगा मुझे; रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंठ, एक दो पल के लिए गुलदान कर देगा मुझे; रूह फूँकेगा मोहब्बत की मेरे पैकर में वो, फिर वो अपने सामने बे-जान कर देगा मुझे; ख़्वाहिशों का ख़ूँ बहाएगा सर-ए-बाज़ार-ए-शौक़, और मुकम्मल बे-ए-सर-ओ-सामान कर देगा मुझे; मुनहदिम कर देगा आ कर सारी तामीरात-ए-दिल, देखते ही देखते वीरान कर देगा मुझे; या तो मुझ से वो छुड़ा देगा ग़ज़ल-गोई 'ज़फ़र', या किसी दिन साहब-ए-दीवान कर देगा मुझे। |
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला; किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला; ग़ज़ाल-ए-अश्क सर-ए-सुब्ह दूब-ए-मिज़गाँ पर; कब आँख अपनी खुली और लहू लहू न मिला; चमकते चाँद भी थे शहर-ए-शब के ऐवाँ में; निगार-ए-ग़म सा मगर कोई शम्मा-रू न मिला; उन्ही की रम्ज़ चली है गली गली में यहाँ; जिन्हें उधर से कभी इज़्न-ए-गुफ़्तुगू न मिला; फिर आज मय-कदा-ए-दिल से लौट आए हैं; फिर आज हम को ठिकाने का हम-सबू न मिला। |
जिस से चाहा था, बिखरने से बचा ले मुझको; कर गया तुन्द हवाओं के हवाले मुझ को; मैं वो बुत हूँ कि तेरी याद मुझे पूजती है; फिर भी डर है ये कहीं तोड़ न डाले मुझको। |
बस एक बार किसी ने गले लगाया था; फिर उस के बाद न मैं था न मेरा साया था; गली में लोग भी थे मेरे उस के दुश्मन लोग; वो सब पे हँसता हुआ मेरे दिल में आया था; उस एक दश्त में सौ शहर हो गए आबाद; जहाँ किसी ने कभी कारवाँ लुटाया था; वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले; कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था; उसी ने रूप बदल कर जगा दिया आख़िर; जो ज़हर मुझ पे कभी नींद बन के छाया था; 'ज़फर' की ख़ाक में है किस की हसरत-ए-तामीर; ख़याल-ओ-ख़्वाब में किस ने ये घर बनाया था। |
कोई सूरत निकलती... कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है; यहाँ हालत बदलती क्यों नहीं है; ये बुझता क्यों नहीं है उनका सूरज; हमारी शमा जलती क्यों नहीं है; अगर हम झेल ही बैठे हैं इसको; तो फिर ये रात ढलती क्यों नहीं है; मोहब्बत सिर को चढ़ जाती है, अक्सर; मेरे दिल में मचलती क्यों नहीं है। |
खोलिए आँख तो... खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत; तू भी क्या कुछ है मगर तेरे सिवा और बहुत; जो खता की है जज़ा खूब ही पायी उसकी; जो अभी की ही नहीं, उसकी सज़ा और बहुत; खूब दीवार दिखाई है ये मज़बूरी की; यही काफी है बहाने न बना, और बहुत; सर सलामत है तो सज़दा भी कहीं कर लूँगा; ज़ुस्तज़ु चाहिए , बन्दों को खुदा और बहुत। |
अभी आँखें खुली हैं... अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को; मुझे पागल किया उस ने तमाशा देखने को; वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा; अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को; तमन्ना की किसे परवाह कि सोने जागने मे; मुयस्सर हैं बहुत ख़्वाब-ए-तमन्ना देखने को; ब-ज़ाहिर मुतमइन मैं भी रहा इस अंजुमन में; सभी मौजूद थे और वो भी ख़ुश था देखने को; अब उस को देख कर दिल हो गया है और बोझल; तरसता था यही देखो तो कितना देखने को; छुपाया हाथ से चेहरा भी उस ना-मेहरबाँ ने; हम आए थे 'ज़फ़र' जिस का सरापा देखने को। |