कभी अकेले में मिल... कभी अकेले में मिल कर झंझोड़ दूंगा उसे; जहाँ-जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूंगा उसे; मुझे छोड़ गया ये कमाल है उस का; इरादा मैंने किया था के छोड़ दूंगा उसे; पसीने बांटता फिरता है हर तरफ सूरज; कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूंगा उसे; मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को; समझ रही थी के ऐसे ही छोड़ दूंगा उसे; बचा के रखता है खुद को वो मुझ से शीशाबदन; उसे ये डर है के तोड़-फोड़ दूंगा उसे। |
दम लबों पर था... दम लबों पर था, दिलेज़ार के घबराने से; आ गई है जाँ में जाँ, आपके आ जाने से; तेरा कूचा न छूटेगा, तेरे दीवाने से; उस को काबे से न मतलब है, न बुतख़ाने से; शेख़ नाफ़ह्म हैं, करते जो नहीं, क़द्र उसकी; दिल फ़रिश्तों के मिले हैं, तेरे दीवानों से; मैं जो कहता हूँ, कि मरता हूँ, तो फ़रमाते हैं; कारे-दुनिया न रुकेगा, तेरे मर जाने से। |
रोज़ तारों की नुमाइश में... रोज़ तारों की नुमाइश में ख़लल पड़ता है; चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है; एक दीवाना मुसाफ़िर है मेरी आँखों में; वक़्त-बे-वक़्त ठहर जाता है, चल पड़ता है; रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते है; रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है; उसकी याद आई है, साँसों ज़रा आहिस्ता चलो; धडकनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है। |
अपने पहाड़ ग़ैर के.... अपने पहाड़ ग़ैर के गुलज़ार हो गये; वे भी हमारी राह की दीवार हो गये; फल पक चुका है शाख़ पर गर्मी की धूप में; हम अपने दिल की आग में तैयार हो गये; हम पहले नर्म पत्तों की इक शाख़ थे मगर; काटे गये हैं इतने कि तलवार हो गये; बाज़ार में बिकी हुई चीजों की माँग है; हम इस लिये ख़ुद अपने ख़रीदार हो गये; ताजा लहू भरा था सुनहरे गुलाब में; इन्कार करने वाले गुनहगार हो गये; वो सरकशों के पाँव की ज़ंजीर थे कभी; अब बुज़दिलों के हाथ में तलवार हो गये। |
हमारी ज़िन्दगी का... हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है; कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है; दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखें तो दिखाने दो; कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है; इसी उलझन में अकसर रात आँखों में गुज़रती है; बरेली को बचाते हैं तो नैनीताल कटता है; कभी रातों के सन्नाटे में भी निकला करो घर से; कभी देखा करो गाड़ी से कैसे माल कटता है; सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता; कभी कश्मीर जाता है कभी बंगाल कटता है। |
मोहब्बतों में दिखावे की... मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला; अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला; घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे; बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला; तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था; फ़िर उस के बाद मुझे कोई अजनबी न मिला; ख़ुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैनें; बस एक शख्स को माँगा मुझे वही न मिला; बहुत अजीब है ये नजदीकियों की दूरी भी; वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला। |
मुझ पर नहीं उठे हैं... मुझ पर नहीं उठे हैं तो उठकर कहाँ गए; मैं शहर में नहीं था तो पत्थर कहाँ गए; मैं खुद ही मेज़बान हूँ मेहमान भी हूँ ख़ुद; सब लोग मुझको घर पे बुलाकर कहाँ गए; ये कैसी रौशनी है कि एहसास बुझ गया; हर आँख पूछती है कि मंज़र कहाँ गए; पिछले दिनों की आँधी में गुम्बद तो गिर चुका; अल्लाह जाने सारे कबूतर कहाँ गए। |
प्यास वो दिल की... प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं; कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं; बेरुख़ी इससे बड़ी और भला क्या होगी; एक मुद्दत से हमें उस ने सताया भी नहीं; रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने; आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं; सुन लिया कैसे ख़ुदा जाने ज़माने भर ने; वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं; तुम तो शायर हो "क़तील" और वो इक आम सा शख़्स; उसने चाहा भी तुझे और जताया भी नहीं। |
मुझसे बिछड़ के... मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो; मेरी तरह तुम भी झूठे हो; इक टहनी पर चाँद टिका था; मैं ये समझा तुम बैठे हो; उजले-उजले फूल खिले थे; बिल्कुल जैसे तुम हँसते हो; मुझ को शाम बता देती है; तुम कैसे कपड़े पहने हो; तुम तन्हा दुनिया से लड़ोगे; बच्चों सी बातें करते हो। |
अजनबी ख्वाहिशें... अजनबी ख्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ; ऐसे जिद्दी हैं परिन्दें कि उड़ा भी न सकूँ; फूँक डालूँगा किसी रोज़ मैं दिल की दुनिया; ये तेरा ख़त तो नहीं है कि जला भी न सकूँ; मेरी ग़ैरत भी कोई शय है कि महफ़िल में मुझे; उसने इस तरह बुलाया कि मैं जा भी न सकूँ; इक न इक रोज़ कहीं ढूंढ ही लूँगा तुझको; ठोकरें ज़हर नहीं हैं कि मैं खा भी न सकूँ। |