अल्फ़ाज़ चुराने की ज़रूरत ही ना पड़ी कभी; तेरे बे-हिसाब ख्यालों ने बे-तहाशा लफ्ज़ दिए। |
किस ख़त में लिख कर भेजूं अपने इंतज़ार को तुम्हें; बेजुबां हैं इश्क़ मेरा और ढूंढता है ख़ामोशी से तुझे। |
इश्क़ में हमने वही किया जो फूल करते हैं बहारों में; खामोशी से खिले, महके और फिर बिखर गए। |
खुशनसीब हैं बिखरे हुए यह ताश के पत्ते; बिखरने के बाद उठाने वाला तो कोई है इनको। |
कभी थक जाओ तुम दुनिया की महफ़िलों से, हमें आवाज़ दे देना, हम अक्सर अकेले होते हैं। |
हमने कब माँगा है तुमसे वफाओं का सिलसिला; बस दर्द देते रहा करो, मोहब्बत बढ़ती जायेगी। |
भरे बाज़ार से अक्सर मैं ख़ाली हाथ आता हूँ, कभी ख्वाहिश नहीं होती कभी पैसे नहीं होते। |
कहाँ माँग ली थी कायनात मैंने, जो इतना दर्द मिला; ज़िन्दगी में पहली बार खुदा तुझसे ज़िन्दगी ही तो मांगी थी। |
डूबी हैं मेरी उँगलियाँ मेरे ही खून में, ये काँच के टुकड़ों पर भरोसे की सजा है। |
दर्द सहने की इतनी आदत सी हो गई है, कि अब दर्द ना मिले तो बहुत दर्द होता है। |