गिरी मिली इक बोतल शराब तो यूँ लगा मुझे; जैसे बिखरा पडा था इक रात का सुकून किसी का । |
अफ़ीमी आँखें, शर्बती गाल और शराबी होंठ; ख़ुदा ही जाने, नशे में हम हैं, या हम में नशा! |
एक तेरा ही नशा था जो शिकस्त दे गया मुझे; वरना मयखाने भी तौबा करते थे मेरी मयकशी से। |
मयखाने से पूछा आज, इतना सन्नाटा क्यों है, मयखाना भी मुस्कुरा के बोला, लहू का दौर है साहब, अब शराब कौन पीता है! |
तुम क्या जानो शराब कैसे पिलाई जाती है, खोलने से पहले बोतल हिलाई जाती है, फिर आवाज़ लगायी जाती है आ जाओ टूटे दिल वालों, यहाँ दर्द-ए-दिल की दवा पिलाई जाती है। |
कलम की नोक पे कहानी रखी है; मैंने इक ग़ज़ल तुम्हारे सानी रखी है; इन आँखों को अब क्या कहें हम; दो प्यालों में शराब पुरानी रखी है! |
ले जा के हमें साँकी जहाँ शाम ढले; कर जन्नत नसीब खुदा जहाँ जाम चले! |
लड़खड़ाये कदम तो गिरे उनकी बाँहों मे; आज हमारा पीना ही हमारे काम आ गया। |
जब भी उमड़े हैँ सैलाब तेरे तसव्वुर के, मयख़ाना गवाह है कैसे हर जाम बेअसर हुआ है! |
आये थे हँसते खेलते मैख़ाने में 'फ़िराक़'; जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए! |