महफ़िल में गले मिल के, वो धीरे से कह गए; ये दुनिया की रस्म है, इसे मोहब्बत न समझ लेना! |
गुमान था कि कोई दुश्मन जान नही ले सकता; अपनों के वार का तो ख़याल तक ना था! |
लफ़्ज़ों के बोझ से थक जाती हैं ज़ुबान' कभी कभी; पता नहीं 'खामोशी मज़बूरी' हैं या 'समझदारी ! |
दर्द सबके एक है, मगर हौंसले सबके अलग अलग है, कोई हताश हो के बिखर गया तो कोई संघर्ष करके निखर गया! |
अजनबी शहर मे किसी ने पीछे से पत्थर फेंका है; जख्म कह रहा है जरुर इस शहर मे कोई अपना मौजूद है! |
आज से हम भी बदलेंगे अंदाज-ऐ-ज़िंदगी, राब्ता सबसे होगा, वास्ता किसी से नही। |
लफ़्ज़ों के बोझ से थक जाती हैं, ज़ुबान कभी कभी; पता नहीं 'खामोशी मज़बूरी हैं या समझदारी! |
सिर्फ टूटे हुए लोग ही जानते है, की टूटने का दर्द क्या होता है ! |
दो चार लफ्ज़ प्यार के ले कर मैं क्या करूंगा; करनी है तो वफ़ा की मुकम्मल किताब मेरे नाम कर ! |
लौटा जो सज़ा काट के, वो बिना ज़ुर्म की; घर आ के उसने, सारे परिंदे रिहा कर दिए! |