गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'; क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना! *गाहे: कभी |
कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद; याद आएगी बहुत मेरी वफ़ा मेरे बाद! |
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर; दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए! |
तुम को आता है प्यार पर ग़ुस्सा; मुझ को ग़ुस्से पे प्यार आता है! |
जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा, हया यकलखत आई, और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता! |
सरकता जाये है रुख से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता; निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता-आहिस्ता! |
वो बे-दर्दी से सर काटें और मैं कहूं उनसे; हज़ूृर आहिस्ता-आहिस्ता, जनाब आहिस्ता-आहिस्ता! |
कह रही है हश्र में वो आँख शर्माई हुई, हाय कैसे इस भरी महफ़िल में रुसवाई हुई; आईने में हर अदा को देख कर कहते हैं वो, आज देखा चाहिये किस किस की है आई हुई; कह तो ऐ गुलचीं असीरान-ए-क़फ़स के वास्ते, तोड़ लूँ दो चार कलियाँ मैं भी मुर्झाई हुई; मैं तो राज़-ए-दिल छुपाऊँ पर छिपा रहने भी दे, जान की दुश्मन ये ज़ालिम आँख ललचाई हुई; ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा सब में हया का है लगाव, हाए रे बचपन की शोख़ी भी है शर्माई हुई; गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला के कहा, वाह सर चढ़ने लगी पाँओं की ठुकराई हुई। |
ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर'; सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है। |
आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन; मरता हूँ मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है। |